Wednesday, October 8, 2014

दुर्गा पूजा और माँसाहार .....!

 

कई जगहों पर दुर्गा पूजा के दौरान माँसाहार खाने वालों के लिए छी-छी दुर-दुर होते हुए देखा । लेकिन इस त्योहार में माँसाहार सदियों पुरानी परंपरा है,  हमारे झारखंड-बिहार में आज भी बँगाल का प्रभाव देखने को मिलता है, क्योंकि दुर्गा पूजा का आविर्भाव ही बंगालियों की देन है । आज भी कई घरों में सप्तमी को मछली खा कर अष्टमी का व्रत किया जाता है । इन प्रदेशों में नवमी के दिन तो माँसाहार नितांत आवश्यक है, ग़रीब से ग़रीब इन्सान के घर में माँस पकता ही है । नहीं पकने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । नवमी की सुबह मीट की दुकानों में भीड़ सुबह चार बजे से लग जाती है और मीट का भाव बढ़ ही जाता है । 

 

दुर्गा पूजा में मान्यता यह है कि माँ दुर्गा अपने मायके आईं हुईं हैं इसलिए उनके आने की ख़ुशी में खान-पान में कोई कमी नहीं रखी जायेगी । आज भी घर में कोई मेहमान आये तो उसके स्वागत लिए नॉन-वेज बनाना हमारे प्रदेशों की परम्परा है । हमारे घर कोई हमारे जैसा मेहमान आये और हम उसे कढ़ी-चावल या राजमा-चावल परोस दें तो वो दोबारा नहीं आएगा और बदनामी करेगा सो अलग :) अगर ये हमारी सदियों पुरानी परम्पराएँ हैं तो इसपर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले दूसरे कौन होते हैं ???? 

 

जो परम्परायें हमें विरासत में मिली हैं उनका निर्वहन हर कोई अपनी-अपनी तरह से और अच्छी तरह से करने की कोशिश करता है । ये सोच लेना कि मेरी परम्परा उसकी परम्परा से बेहतर है और उसे साबित करने के लिए 'व्यंग', 'कटाक्ष', 'नेम कॉलिंग', भला-बुरा कहना मेरे विचार से कहीं ज्यादा 'हिंसात्मक प्रवृति' है । हैरान करने वाली बात यह है कि कुछ लोगों को सिर्फ़ अपनी भावनाओं की ही फ़िक्र रहती है, वो ना तो दूसरों की भावनाओं के बारे में सोचते हैं ना दूसरों की परम्पराओं को सम्मान देने का विचार करते हैं ।

जब मैं छोटी थी तब से मैंने मेरी दादी, चाची, माँ सबको देखा है जीउतिया का व्रत रखने के एक दिन पहले मछली-भात खाते हुए मेरी कुछ बँगाली दादियों को तो छोटी सी ज़िंदा मछली निगलते भी देखा है जीउतिया (अहोई) व्रत करने से पहले, तो क्या उनको 'क्रिमिनल' माना जाएगा ??? या कि वो सारी बेहतर इन्सान ही नहीं थीं ??? मछली को वँश विस्तार का प्रतीक माना गया है और जिउतिया बच्चों लिए ही किया जाता है इसलिए आज भी शादी-विवाह में बँगाल-बिहार-झारखण्ड के कई ईलाकों में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 

आज भी जीउतिया से एक दिन पहले घर में मछली बनती ही है,  दुर्गा पूजा के सप्तमी को मछली बनती है और नवमी के दिन मीट बनता ही है… अब अहिंसा के पुजारियों दे दो हम सबको फाँसी, क्योंकि हम अगर ज़िंदा रहे तो ऐसा होता ही रहेगा !! 

जापान की ७५% आबादी बौद्ध धर्म का अनुकरण करती है, लेकिन वो सभी माँसाहारी हैं, तो इसका क्या अर्थ हुआ कि वो लोग अच्छे बौद्ध नहीं हैं ?

अंतरजाल पर जब कुछ लिखा जाता है तो वह सिर्फ़ उत्तर भारत या मध्य भारत या दक्षिण भारत के लिए नहीं लिखा जाता है,  या यों कहें सिर्फ भारत के लिए नहीं लिखा जाता, यह पूरे विश्व के लिए लिखा जाता है.…ये सभी परम्पराएँ इन त्योहारों के उद्गम के दिन से ही शुरू हुईं हैं और आज भी विद्यमान हैं । सच्चाई को ज़बरदस्ती नकार देने से साक्ष्य नहीं बदल सकते । 

मैं माँसाहार की हिमायती नहीं हूँ, लेकिन मांसाहारियों के लिए घृणा पालने के पक्ष में भी नहीं हूँ क्योंकि ऐसा हुआ तो मुझे बहुतों से घृणा करनी पड़ेगी, मसलन मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-चाची, दोस्त-मित्र, मेरे बहुत सारे हिन्दुस्तानी, कैनेडियन, अमेरिकन रिश्तेदारों से.… 

फिर मुझे घृणा करनी होगी ईसा मसीह जैसे पैगम्बर से जिन्होंने माँसाहारी होते हुए भी पूरी दुनिया को प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया, मदर टेरेसा से, फिर मुझे घृणा करनी होगी उन सभी हिन्दू ग्रंथों के पात्रों से जो आखेट में जाया करते थे … बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं,  भोजन अपनी पसंद का ही करना चाहिए।

 

बाक़ी भी पढ़ ही लीजिये कैसे हुई थी शुरुआत दुर्गा पूजा की एक बँगाली परिवार द्वारा .…

हाँ नहीं तो !!!

http://www.jagran.com/bihar/rohtas-9777741.html

डेहरी आन-सोन (रोहतास) : शहर में प्रथम दुर्गोत्सव का श्रेय बंगाली परिवार का रहा है। इस परम्परा का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। यहां 1908 में बतौर स्टेशन मास्टर आए मनमुसुनाथ मित्रा ने दुर्गा पूजा की बुनियाद रखी। उन्होंने पाली रेलवे गुमटी अवस्थित देवी मंदिर को शारदीय नवरात्र के दौरान मां दुर्गे की पूजा-अर्चना के लिए चयनित किया। कोलकाता से मूर्तिकार को आमंत्रित किया। उसी मूर्तिकार पुआल के ढांचे पर मिंट्टी की गढ़न से पहली बार मां दुर्गे की प्रतिमा बनाई।

मनमुसुनाथ मित्रा के 95 वर्षीय पुत्र रविन्द्रनाथ मित्रा (एलआईसी के सेवानिवृत्त वरीय प्रबंधक) बताते हैं कि यहां 1956 में रामकृष्ण आश्रम का निर्माण हुआ। तब से दुर्गा पूजा यहां होने लगी। बंगाली समाज तब से यहां लगातार भव्य पूजनोत्सव का आयोजन परंपरागत ढंग से करता आ रहा है। आज भी रामकृष्ण आश्रम की ओर से प्रतिवर्ष पूजा स्मारिका प्रकाशित होती है। इस स्मारिका के विज्ञापन के लिए रामकृष्ण आश्रम से जुड़े युवा काफी मेहनत करते हैं। पितृपक्ष बीतते ही उत्सव की तैयारियां शुरू हो जाती है। आयोजन को ले कई बैठकें होती हैं। विशेषकर बंगाली परिवार नवरात्र शुरू होने के दस दिन पहले ही उत्सवी रंग में डूबा नजर आता है। इनका उल्लास व भक्ति भाव देख ऐसा लगता है, मानो आप डेहरी में नहीं कोलकाता में हैं।
शारदीय दुर्गोत्सव के अध्यक्ष प्रदीप दास उर्फ गोरा दा बताते हैं कि परंपरा के अनुसार आज भी यहां मूर्तियां कोलकाता से आए मूर्तिकार ही बनाते हैं। इस वर्ष मूर्तिकार बुद्धदेव पाल ने प्रतिमाओं का निर्माण किया है। पुरोहित चंचल राय तथा ढाक बजाने वाले कलाकार भी कोलकाता से आए हैं। प्रतिदिन मां को भोग लगाया जाता है। वे कहते हैं कि संस्थागत पूजा बहुत बाद में शुरू हुई। काफी समय तक सबसे पहले आश्रम की प्रतिमा विसर्जित होती थी उसके बाद ही शहर की दूसरी प्रतिमाओं का नम्बर आता था। आज कल रामकृष्ण आश्रम की पूजा का भार मुख्य रूप से पल्लव कुमार मित्रा, बादल चक्रवर्ती, तपन कुमार डे आदि पर है।
रेल रूट, चूना भट्ठी व रोहू ने लुभाया

दर्जनों बंगाली परिवार के बीसवीं सदी की शुरूआत में डेहरी में बसने की वजह भी कम रोचक नहीं है। उन्हें पश्चिम बंगाल से आवागमन की सहूलियत, उद्योग-धंधे की संभावना तथा खाने में प्रिय मछली की प्रचुर उपलब्धता नजर आई। इस कारण एक-एक कर बंगाली परिवार बसते गए। स्थानीय समाज में खुद तो रचे बसे ही अपनी परम्पराओं व संस्कृति को भी स्वीकार्य बना दिया।
याद दिला दें कि वर्ष 1900 में कोलकाता से दिल्ली को ट्रेन रूट से जोड़ने के लिए महानद सोन पर विश्व के सबसे लम्बे रेल पुल का निर्माण कराया गया। कैमूर पहाड़ी में चूना पत्थर प्रचुर मात्रा में था। इस कारण यहां चूना भट्ठियां स्थापित कर व्यवसाय की बेहतर संभावना थी। दरअसल उस दौर में भंवन निर्माण में चूने का ही इस्तेमाल होता था। इसके अलावा बंगाली परिवार मछली के प्रेमी होते हैं। यहां सोन नद की रेहू मछली स्वाद में बेजोड़ है ही।



http://navbharattimes.indiatimes.com/festivals/-/articleshow/3560541.cms

नवरात्र ऐसा समय है, जब संपूर्ण भारत भक्ति में आकंठ तक डूबा रहता है। मां को प्रसन्न करने का इससे पावन समय साल में दोबारा नहीं मिलता। अपने देश का हर प्रदेश इस दौरान उत्साह और उल्लास से भरपूर रहता है। नवरात्र में मां की पूजा यूं तो हर प्रदेश में अपने ही ढंग से होती है, लेकिन बंगाल की खड़ी के तटवर्ती प्रदेश बंगाल की बात ही कुछ निराली है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि रसगुल्ले के लिए मशहूर बंगाल में शक्ति स्वरूपा को प्रसाद के रूप में इस मिठाई का भोग नहीं लगाया जाता।

बंगाल में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत षष्ठी से होती है। इसे वहां के लोग 'अकाल बोधन' भी कहते हैं। इसी दिन मूर्ति के आगे से पर्दे को हटाया जाता है और मां की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि मां को अब पंडाल स्थित मूर्ति में आने का निमंत्रण दे दिया गया है। इसके बाद दशमी तक विधि-विधान से मां की आराधना की जाती है। पूजा-अर्चना का सारा काम काम पुरोहित करते हैं। इनकी संख्या एक या दो हो सकती है। इनकी सहायता के लिए बड़ी संख्या में भक्तजन मौजूद रहते हैं। मूर्ति की स्थापना सामान्यतया पंडालों में की जाती है। दिल्ली में यह कार्य कई सोसाइटी भी करती हैं।
प्रसाद

प्रसाद के रूप में षष्ठी को मुख्यत: सूखी मिठाई चढ़ाई जाती है। इनमें बताशा, संदेश, फल आदि रहते हैं। फलों में सेब, केला और अन्य मौसमी फलों की ही अधिकता रहती है। पूजा के फूलों में विदेशी फूलों का कोई स्थान नहीं होता। यही वजह है कि जब आप इनके पंडाल पर जाएंगे, तो गुलाब नहीं दिखेगा। अगरबत्ती, धूपबत्ती, घी आदि से अलग तरह का माहौल पैदा हो जाता है। इस दिन अधिकतर लोग उपवास नहीं रखते। वैसे, चंडी पाठ इसी दिन से शुरू हो जाता है। षष्ठी से ही आरती भी की जाने लगती है। इसके बाद प्रसाद वितरण होता है।

भोजन

बंगाल के लोगों के बीच दुर्गा पूजा को लेकर एक ही मान्यता है कि इस दिन मां अपने मायके आती हैं, तो हमें खुशी मनानी चाहिए। न कि कष्ट उठाकर और खुद को दुखी करके मां की पूजा करें। यही वजह है कि इनके बीच नवरात्र में भी मांसाहारी भोजन पर रोक नहीं होती। दिल्ली में जॉब कर रहीं और मूल रूप से बंगाल की रहने वालीं सोमा और मोनाली बताती हैं, 'हमलोग दुर्गा पूजा में मांस-मछली खाने को अधिक तरजीह देते हैं। जब मां अपने घर आई हैं, तो सभी को उत्साह पूर्वक रहना चाहिए। हां, पूजा में हम कोई विघ्न नहीं होने देते।'