Tuesday, March 5, 2013

क्या हिन्दू शब्द गाली है ??

ई हम पढ़े हैं, आप भी पढ़ लीजिये ...:)

भारतीय संस्कृति सहिष्णुतावादी रही है, लेकिन हम कायरता की हद तक सहिष्णु हैं। संभवत: यही कारण है कि हमने गुलामी के प्रतीकों को न सिर्फ़ आत्मसात किया, बल्कि उनका महिमामंडल करने में भी हम पीछे नहीं रहे । उदाहरण के लिए 'हिन्दू' शब्द को ही लें । यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक तो है ही, इसमें गाली भी छुपी है । इतिहासकारों का मानना है कि हिन्दू शब्द ईरानियों का दिया हुआ है । ईसा पूर्व छठी शताब्दी यानी आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व ईरानियों ने पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण कर, इस धारा पर कदम रखे थे, उन्होंने सिन्धु नदी के किनारे रहने वालों को हिन्दू नाम दिया । ईरानी 'स" का उच्चारण नहीं कर पाते थे और उसकी जगह 'ह" का इस्तेमाल करते थे । इतिहासकार कहते हैं कि उन्होंने 'सिन्धु' से 'हिन्दू' संबोधन दिया और इसी आधार पर इस देश का दूसरा नाम हिन्दुस्तान पड़ा । सनातन धर्मशास्त्र हमें आर्य और धर्म सनातन बताते हैं, किन्तु हम अब न खुद को आर्य कहते हैं और न ही सनातनी । ईरानियों द्वारा आर्यो को हिन्दू संबोधन देने के बाद ईरानी शब्दकोष में इसे अपमानजनक रूप से प्रस्तुत किया । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ईरानी शब्दकोष में 'हिन्दू' का अर्थ 'चोर-लुटेरा' बताया गया है । ईरानियों द्वारा दिए गए इस संबोधन को आत्मसात करने से पहले, हमने यह जानने की कोशिश भी नहीं की, कि वे हिन्दू शब्द का क्या अर्थ बताते हैं । अपने आपको हिन्दुओं का हितैषी बताने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के डॉ. हेडगेवार ने तो दो कदम आगे बढ़कर यह नारा दे डाला - ' गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं ।" जबकि हकीकत यह है कि हिन्दू शब्द गर्व का नहीं, बल्कि शर्म का विषय है ।

नाम की बात चली तो यह भी जान लेना चाहिए कि भारत और हिन्दुस्तान कहे जाने वाले इस देश का एक और नाम है इंडिया । यह शब्द अंगरेज़ों की देन है, जिसे गढ़ने से पहले उन्होंने हमसे भी अपमानजनक शब्दों को समाहित किया । हम इस शब्द को बेहद गर्व से प्रयुक्त करते हैं । पूरी दुनिया में शायद भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसके तीन-तीन नाम हैं । 'भारत' वास्तविक नाम है, जबकि हिन्दुस्तान और इंडिया यह दशाते हैं कि हम कभी गुलाम भी रहे हैं । एक और नाम था 'आर्यावर्त'... जिसे सब भूल चुके हैं। 

गुलामी की चर्चा हो रही इंडिया गेट का नाम आए, ऐसा हो नहीं सकता । भारत सरकार और भारतवासी इंडिया गेट को एक धरोहर के रूप में मानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह भी हमारी गुलामी का प्रतीक है । द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की ओर से लड़ी सेना के जो जवान मारे गए थे, उनकी स्मृति में इंडिया गेट का निर्माण किया गया था । स्वतंत्र भारत में इसी इंडिया गेट पर ' जय जवान " अंकित कर इसे भारतीय सैन्य जवानों की शहादत का प्रतीक बना दिया गया । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया गया था । इस फौज के एक बड़े पदाधिकारी कर्नल जीएस ढिल्लन जीवनभर चीखते-चिल्लाते रहे कि गुलामी के इस प्रतीक को ढहा दिया जाए, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई 

गुलामी के प्रतीक चिन्हों को महिमामंडित करने की परंपरा यहीं तक नहीं थमी । अपनी प्राचीनता, वैभव और संस्कृति पर हमें गर्व नहीं रहा और हमने गुलामी के दीगर प्रतीकों को आत्मसात करने में भी हिचक नहीं दिखाई । इतिहास गवाह है कि शकों ने भारत भूमि पर आक्रमण किया था । वे आक्रांता थे, जिन्होंने अपने ढंग से शासन करने के लिए शक संवत् प्रचलित किया । आज इस शक संवत् का कोई महत्त्व नहीं है और इसे कोई भी नहीं मानता है, लेकिन सरकारी कैलेण्डर में आज भी शक संवत् प्रकाशित किया जाता है । क्यों ? कारण कोई नहीं जानता । हमारे देश पर अंगरेजों ने भी राज किया और उन्होंने भी अंगरेजी सन् हम पर थोपा । हमें स्वतंत्र हुए साठ साल से ऊपर हो गए हैं, मगर अंगरेज़ी सन् से हम आज भी चिपके हुए हैं । यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने ईस्वी सन से 58 साल पहले ही विक्रम संवत प्रारंभ कर दिया था, जो यह दर्शाता है कि कालगणना के क्षेत्र में हम यूरोप और अरब जगत से आगे हैं, किन्तु हमारी सरकार और हम इसे आत्मसात नहीं करते हैं । नए ईस्वी सन के आगमन की पूर्व संध्या पर हम जश्न मनाते हैं, लेकिन अपने नववर्ष चैत्र प्रतिसाद (गुड़ी पड़वा) को कोई महत्व नहीं देते हैं । क्या यह हमारी गुलाम मानसिकता का उदाहरण नहीं है ? हम मुगलों के भी गुलाम रहे, जिनके हिजरी सन् आज इसलिए चलन में हैं, क्योंकि इस देश में मुसलमानों की भी बड़ी आबादी है । मोहम्मद गौरी, मेहमूद गज़नवी और औरंगज़ेब जैसे कट्टरपंथी शासकों को छोड़ दिया जाए तो बाबर, हुमायूं, जहाँगीर और शाहजहाँ ने इस देश की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया है । इसलिए भी हिजरी सन के चलन पर किसी को सवाल उठाने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन ईस्वी सन् को ढोते रहने की आखिर क्या मजबूरी है ? हम स्वतंत्र हैं, तो हमारी अपनी संस्कृति, अपनी विरासत के प्रति इतने निष्ठुर क्यों हैं ? वह दिन कब आएगा जब हम अपना विक्रम संवत् अपनाएंगे ? सरकारी कैलेण्डर से शक संवत् हटेगा ? गुलामी के प्रतीक स्मारक इंडिया गेट को कब ज़मींदोज़ किया जाएगा ? या हम इन प्रतीकों को झेलते रहने के लिए हमेशा अभिशप्त रहेंगे ? 


महेश बागी
http://madhyabharat.net/archives.asp?NewsID=179