Monday, January 7, 2013

पुरातत्वविद ....

अब ! 
मैं पाषाण हो गयी हूँ ।
मेरे फटे वस्त्रों, और टूटे-फूटे अवशेषों ने  
अनगिनत घटनाएं झेल लीं।
अब ! 
जी करता है, 
मैं ये मकाँ, हमेशा के लिए छोड़ जाऊं, 
मुझसे जुडी हर चीज़,
बस यहीं रच-बस जाए। 
कमरों में बिखरे कागजों में, मेरा बचपन
टूटे बर्तनों में, मेरी जवानी, और
खाली मर्तबानों में, मेरा बुढ़ापाचस्पा हो जाए, 
ठण्ढे चूल्हे सी मेरी उम्मीदें, बुझ चुकीं हैं,
और टूटे लैम्प की पेंदी से, 
मेरी उदासियाँ, टपक कर सर-ज़मीं हो गईं। 
वो आरामकुर्सी, 
जो कोने में पड़ी, ऊँघ रही है, 
मेरे हर घुटे हुए सपने के पैबन्द से, पैबस्त है । 
हज़ारों साल बाद, 
जब तुम, इस मकान की नींव खोदोगे, 
तुम्हें, कुछ गिरी हुई दीवारें मिलेंगीं,
कुछ बर्तन मिलेंगे और मिलेंगे कुछ भांडे ।
मेरी याद का एक-एक टुकड़ा, 
तुम्हें वरदान सा लगेगा,
लेकिन ...
उनकी त्रासदी, बस इतनी सी होगी, 
तुम उनकी भाषा, कभी समझ नहीं पाओगे,
और 
फ़जूल के अटकल ही लगाते रह जाओगे ....




9 comments:

  1. वाह! बहुत सुंदर, बेहतरीन रचना।

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  2. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के चर्चा मंच पर ।।

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  3. कारण और निवारण, दोनों ही स्पष्ट हैं, फिर भी बहस जारी है।

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  4. इन्‍हीं अटकलों में हमारी अपनी खोज होती है.

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  5. बहुत ही उदास कर गयी यह कविता
    कभी कभी ऐसी ही मनोदशा हो जाती है कि बस पाषाण ही बन कर रह जाएँ

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  6. बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति @मोहन भागवत जी-अब और बंटवारा नहीं

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  7. अति सुंदर कृति
    ---
    नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें

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  8. निराशा हावी न हो, हम तो यही आशा रखेंगे।

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  9. बहुत सुंदर....इन जानकारीपूर्ण पोस्ट के लिए बहुत धन्यवाद.

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