Sunday, April 29, 2012

कभी अपनी गर्दन घुमा कर तो देखो...

कुछ नया नहीं लिख पाई हूँ...ये पुरानी पोस्ट है,  मुझे पसंद है...
कविताओं के साथ एक बड़ी समस्या है, लोग फटा-फट सोचने/पूछने लगते हैं..किस पर लिखा है :)
इससे पाहिले कि कोई सोचे/पूछे हम पहिले ही पाठकगणों को बताय देना चाहते हैं...कोई भी इसे अपने ऊपर चिपका कर खामखाह खुस होने की कोसिस न करे, न ही ये सोचे अरे ई ज़रूर फलनवा के लिए लिखा होगा....हाँ नहीं तो..!!

तुम्हें रस्म-ऐ-उल्फत निभानी पड़ेगी,
मुझे अपने दिल से मिटा कर तो देखो

तुम्हें लौट कर फिर से आना ही होगा
मेरे दर से इक बार जाकर तो देखो ।

ज़माने की बातें तो सुनते रहे हो,
ज़माने को अपनी सुना कर तो देखो,

चलो आईने से ज़रा मुँह को मोड़े ,
नज़र में मेरी समा कर तो देखो

तेरे गीत पल-पल मैं गाती रही हूँ,
मेरा गीत तुम गुनगुना कर तो देखो

मैं गुज़रा हुआ इक फ़साना नहीं हूँ
मुझे तुम हकीक़त बना कर तो देखो

तू तक़दीर की जब जगह ले चुका है
मुझे अपनी क़िस्मत बना कर तो देखो

तेरे-मेरे दिल में जो मसला हुआ है,
ये मसला कभी तुम मिटा कर तो देखो

बड़ी देर से तुझपे आँखें टिकी है,
कभी अपनी गर्दन घुमा कर तो देखो

भरोसा दिलाया है जी भर के तुमको
खड़ी है 'अदा' आज़मा कर तो देखो

बस एक धुन ली और गाने की कोशिश की है....