Sunday, January 31, 2010

ऋतु परिवर्तन...


 ....आज....

सुनते हो..!!
मत हो जाना, तुम मौन,
अन्यथा
मन  के भाव,
संचित होकर,
हृदय-भूगर्भ में
उमड़-घुमड़,
न जाने कितने
बंध-अनुबंध,
तोड़ना चाहेंगे ...
देखो ना !!
कितने बादल घिर आये हैं,
मन-आकाश में |

.....कल....
प्रतीक्षारत नयन,
मुखरित हो जायेंगे 
भाव,  झमा-झम बरसेंगे
छटेंगे बादल
संशय के,
पारदर्शी हो जायेंगी दिशायें,
 
हवाएँ सत्य की
हृदय को छूकर गुजरेंगीं   

और
हो जाएगा ऋतु परिवर्तन 
मेरे-तुम्हारे 
मन में..... 

Saturday, January 30, 2010

सृष्टि मेरी गोद में ...


जब भी मेरी गोद में
मेरा शिशु होता है
तुम नगण्य हो जाते हो
कहाँ नज़र आते हो तुम मुझे ??
मेरी गोद धरा बन जाती है
और पूरी सृष्टि उसमें समाती है
मत बुलाया करो मुझे
अर्थपूर्ण आँखों से
यह विनय नहीं
आदेश है
मैं अपनी सृष्टि के
यथार्थ में
तुम्हारा प्रतिबिम्ब देख सकती हूँ
लेकिन तुम्हें नहीं
तुम्हें भी मेरी आँखों में
वही दिखेगा
मेरा शिशु
मैं माँ  हूँ ना ...!!

Friday, January 29, 2010

वो कौन है ???

आज कल ब्लॉग जगत में बेनामी जी
अपनी सही और सधी हुई बातों के लिए बहुत पसंद किये जा रहे हैं...पहले दिन ही मुझे लगा कि ये ज़रूर मुफलिस जी हैं..उनसे मैंने पूछ भी लिया ...लेकिन ज़ाहिर सी बात है उनका जवाब ..'ऋणात्मक' था..हा हा हा..
फिर मुझे लगा गिरिजेश राव हैं, उनसे भी पूछ लिया...उनका जवाब गोल-मोल था....
आज गौतम राजरिशी की टिपण्णी देखी उनपर भी लोगों ने शक किया है...
आज आप लोगों से पूछती हूँ कौन है ये 'बेनामी जी' ??
वैसे तो ये बेनामी ही रहे तो अच्छा है..क्यूंकि 'बेनामी' रह कर ये जो काम कर पा रहे हैं शायद 'नाम' के साथ नहीं कर पाते...मैं तो इनकी मुरीद हो ही गयी हूँ...आप लोग क्या कहते हैं...ज़रा अपने विचार दीजिये आखिर हैं कौन ये..?
कोई महिला भी हो सकती हैं.. चलिए अब गेसियाइये  ज़रा.....हा हा हा

Thursday, January 28, 2010

ॐ जय चिटठा चर्चा.....समीर जी और ज्ञानदत्त पाण्डेय जी आपको समर्पित है..




महामहिम  समीर लाल जी  की आरती पढ़ी मानसिक हलचल पर ..मन अति प्रसन्न हुआ ..सोचा  इसको थोड़ा और बढाया जाए... एक दो दिन में पक्की बात है गाकर डालूंगी...फिलहाल आप गुनगुना कर काम चलाइये...
आदरणीय समीर जी और आदरणीय ज्ञानदत्त पाण्डेय जी आपको समर्पित है मेरी यह रचना...

ॐ जय चिट्ठाचर्चा
स्वामी जय चिट्ठाचर्चा
तुम्हरे कारण अपना
तुम्हरे कारण अपना
नहीं बंद हुआ चर्चा
ॐ जय चिटठा चर्चा

कितने भी ठोस मैं पोस्ट लिखूँ
स्वामी कितने भी ठोस लिखूँ
इनकी नज़र में भईया 
मैं ना धाँसू दिखूँ
स्वामी मैं ना धाँसू दिखूँ
कैसे योग्य बनूँ  मैं
आउट करो परचा
ॐ जय चिटठा चर्चा

बैर जो आपसे मोल लिया
बस भाग मेरा फूटा
भईया भाग मेरा फूटा 
चिट्ठों की मेरी वाट लगी
चर्चा ही मेरा छूटा
स्वामी काहे भला छूटा
चर्चे उनके बड़े हैं
चर्चे उनके बड़े हैं
जो गोड़ इनके पड़ता
ॐ जय चिटठा चर्चा


अब हम जाने हैं बंधू
लुटिया डूबी मेरी
लुटिया ही डूबी मेरी
सत्य वचन हम बोलें
हमरी है खूबी
स्वामी हमरी है खूबी 
अपने जोर लगाओ
चेलों को भी बुलाओ
फर्क नहीं पड़ता 
ॐ जय चिटठा चर्चा

नाम जो इसके डोमेन लिया
स्वामी काहे डोमेन लिया
माथा पकड़ कर सोचूँ
हाय रे ये क्या किया 
मैंने काहे ये किया  
छोटे बड़े सभी को
छोटे बड़े सभी को
खूब लगा मिर्चा
ॐ जय चिटठा चर्चा

ॐ जय चिटठा चर्चा
स्वामी जय चिट्ठाचर्चा
तुम्हरे कारण अपना
तुम्हरे कारण अपना
थोड़ा बढ़ा खर्चा
ॐ जय चिटठा चर्चा

झटपट  गाये हैं   सुन लीजिये  ::::



हमने भी एक दूसरा ख़ुदा बना दिया



जब उसने हमें बनाकर यूँ भुला दिया
हमने भी एक दूसरा ख़ुदा बना दिया

दूरियाँ हैं कितनी, अब क्या हिसाब दें
ख़ुद को लहू बना तेरी रगों में बहा दिया

खाक़ में मिलाना था,तो खाक़ में मिलाते
खाक़ होकर, खाक़ में हमको मिला दिया

घेरा वो तेरे शाने का फिर मेरा वहाँ बसना
सीने से यूँ लगाया कि अन्दर छुपा दिया

कहकशाँ की भीड़ में अश्क़ भी छुपा था
हंसने लगे थे हम तो उसने रुला दिया 

ईटों के सीने में तो पत्थर के दिल मिलेंगे
चुन-चुन के पत्थरों से  किला बना दिया



Wednesday, January 27, 2010

प्रगति...





एक पुरानी कविता....


बहुत दूर से चली आ रही हूँ

ये सोच कर चल रही हूँ,

कि कभी न कभी,

घर आएगा

जी उछल जायेगा,

मन मुस्काएगा,

थके तन और मन,

दोनों को मिलेगी एक थाह,

सुस्ताने की अब प्रबल हो गयी है चाह,

पर घर है कि आता ही नहीं है,

बोझ थकन का मन से जाता ही नहीं है,

बिना रुके लगातार, 

निरंतर....

हम चलते ही रहते हैं,

घर, कभी नहीं आता,

शायद  'प्रगति'  इसे ही कहते हैं




Tuesday, January 26, 2010

देखा.....देखा




अवरुद्ध रुद्ध हुआ कंठ मेरा आपका जो प्यार देखा

झाँझ झंकृत हो गये जो हृदयंगम कोई तार देखा

प्रणय तूलिका भाव रचना स्नेह अपरम्पार देखा

सजल दृष्टि छलक छलकी प्रेम गौरव अपार देखा

प्राण-प्राण में है श्वास-सरगम जीवनाधार देखा

मोहपाश में विचर रहा मन नेह नेह निहार देखा

Monday, January 25, 2010

कहते हैं लोग ...मैं मर जाऊँगी....



दिन था ७ मई २००९ दिन शायद गुरुवार था ...सुबह ८ बजे...मुझे ऑफिस जाना था और मैं तैयार होकर बस न्यूज़ देखने बैठी थी...ऑफिस के लिए निकलने में कुछ समय अभी था...


खैर मुझे याद है....न्यूज़ शुरू ही होने वाला था....मैं कुर्सी में बैठ गयी थी...और उसके बाद क्या हुआ मुझे याद नहीं....जब मेरी नींद खुली तो मैं अस्पताल में थी और दिन था शनिवार शाम ३ बजे....
बाद में मुझे ..पता चला कि मैं बैठे-बैठे बेहोश हो गई...घर में बच्चे थे....उस  दिन बच्चों की छुट्टी थी ..छुट्टी के दिन वो लोग ज़रा देर ही उठते हैं  ...उनलोगों ने  मुझे ११ बजे के लगभग बेहोश पाया.....९११ सेवा बुलाई गई ...और मुझे लाद कर अस्पताल पहुंचाया गया...जहाँ मैं ३ दिन बाद होश में आयी..



आज तक डाक्टर ठीक से बता नहीं पाए हैं कि क्या हुआ है....१५००० तसवीरें....अनगिनत टेस्ट्स और ना जाने क्या क्या...सारे टेस्ट्स के रिजल्ट्स  सही पाए गए हैं....कहीं कोई गड़बड़ी नहीं.....मुझे बड़े-बड़े मशीनों में डाल-डाल जो-जो करना था सब कर चुके... डाक्टर्स को भी चक्कर आ गया है....पूछने पर कुछ भी बता पाने में असमर्थ हैं ...लेकिन इतना ज़रूर बताते हैं कि...आपको कभी भी, कुछ भी हो सकता है....यहाँ तक कि मृत्यु भी...डॉक्टर्स हाथ धोकर मेरे पीछे पड़े रहते हैं...कि बस मैं हॉस्पिटल आऊं और वो मुझ पर अपना प्रयोग करें...कुछ दिनों तक तो झेल पाई मैं ... लेकिन रोज-रोज अस्पताल में ८ घंटे बिताना, मेरे वश की बात नहीं थी ..बस  मैंने हाथ खड़े कर दिए...और अब तो मैं उनके फ़ोन ही नहीं उठाती हूँ ....मौत तो सबको आनी है...मुझे भी....लेकिन मैं बिंदास जीना चाहती हूँ...मुझे हँसने की बीमारी है...मेरे सारे दोस्त ...मेरे माँ-बाप...मेरे बच्चे ...और मेरे 'वो'.....जो मुझे जी-जान से प्यार करते हैं...मेरे साथ अपने जीवन का एक-एक पल बिताते हैं...दिन-रात......वो सभी जानते हैं ...मुझे ठहाके लगाने की बिमारी हैं...जिन्होंने मुझे देखा नहीं है ... सिर्फ़ मुझसे बात की है ...फ़ोन पर,  वो भी जानते  हैं....कि मुझे हँसी से कितना लगाव है....


कभी-कभी डॉक्टर्स भी ना डराने में ज्यादा यकीन रखते हैं (माफ़ी दराल साहब )...और मुझे नहीं डरना है...कभी डरी ही नहीं.....किसी भी दिन, किसी को, कुछ भी, कहीं हो जाना, सब पर लागू होता है  ....हाँ ये सच है कि  मुझ पर थोडा सा ज्यादा लागू होता है...लेकिन मुझे परवाह नहीं है....मैं जी भर के लिखती हूँ.....जी भर के गाती हूँ...और जी भर के हँसती  हूँ....बस सिर्फ़ इतना ही सोचती हूँ कि जो भी बचा हुआ जीवन है ...उसे जी भर कर जीउँ.....अगर ऐसी कोई out of ordinary बात हो जाए और कारण का पता ना चले... तो मन में बेकार की बातें आने ही लगतीं हैं ...लेकिन  इस रहस्यमय बीमारी की मुझे कोई चिंता नहीं है ...मैंने अपने माता-पिता  को भी नहीं बताया है....मैं उनके जीवन में  किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं देना चाहती...


हाँ ... अभी तो मेरे सारे काम बाकी है, बच्चों की पढ़ाई...उनका शादी-विवाह...कुछ भी तो नहीं किया है ...लेकिन मन में संतोष यह है कि बच्चों को अच्छे संस्कार दे दिए हैं....कभी-कभी तो उनसे मैं ही कुछ सीख लेती हूँ...इसलिए पूरा भरोसा है कि वो एक अच्छा जीवन जियेंगे...और फिर आपलोग तो हैं ही...मार्गदर्शन के लिए....आप सब वादा कीजिये... जब मैं न रहूँ...तब बीच-बीच में उनका हाल-चाल पूछते रहेंगे...


कुछ समय पहले की बात है...मेरी बिटिया को स्कूल जाना शुरू करना था ..और हमसब बहुत परेशान थे.. कि वो अंग्रेजी नहीं बोल पाएगी  ...क्योंकि हम घर में हिंदी बोलते हैं...मैंने अपने बड़े बेटे 'मयंक' से कहा कि तुम दोनों आपस  में अंग्रेजी में बात किया करो नहीं तो चिन्नी (मेरी बिटिया) नहीं बोल पाएगी अंग्रेजी...मेरे  बेटे का जवाब मुझे आज  भी याद...उसने कहा मम्मी चिन्नी को अंग्रेजी बोलने से दुनिया कि कोई ताक़त नहीं रोक सकती है ...अंग्रेजी बोलना उसकी  मजबूरी हो जायेगी और यह सीख ही लेगी...अब आप मुझसे मत कहिये कि मैं अपनी बहन से अंग्रेजी में बात करूँ...ये मुझसे नहीं होगा....और मैं अपने ८ साल के बेटे को मुंह बाए देखती रह गई थी...


कुछ  दिनों पहले ="http://swarnimpal.blogspot.com/2010/01/blog-post_20.html">दीपक मशाल

की पोस्ट पढ़ी... हालांकि वो तो बुखार में ही बडबड़ा रहा था....उसे कभी कुछ हो ही नहीं सकता....और अब तो वो फर्स्ट क्लास ..ठीक हो गया है.....ख़ैर, उसकी घबडाहट देखा और भावावेश में कह दिया की मैं अपने बारे में बताउंगी...और फिर जब कह दिया तो बता देना मेरा धर्म हो गया....  हो सकता है अगले ८० वर्ष तक जीवित भी रह जाऊं (फिर आप कहेंगे ..हुन्ह्ह ..बड़ा कहती थी... मरी भी नहीं हा हा हा ) ...लेकिन यह भी संभव है कि कल ही मेरे लिए आप में से कोई श्रधांजलि की  पोस्ट लिख रहे हों....इसलिए अगर ऐसा कुछ हो जाए तो अग्रिम क्षमायाचना है आप सबसे...जाने अनजाने आपको दुःख पहुँचाया  हो तो....एक बात तो तय है कि जीवन में हर किसी को खुश नहीं रखा जा सकता है ...इसलिए कुछ तो नाराज़ हैं और रहेंगे ही....फिर भी मैं  कोशिश यही करती हूँ कि सत्य का साथ दूँ...अन्याय बर्दाश्त नहीं करती और अगर कहीं कुछ ग़लत देखती हूँ तो मुखर हो जाती हूँ...क्या करूँ बचपन से आदत जो है...


जब मैं बहुत छोटी थी... हर पूर्णिमा को पंडित जी सत्यनारायण की कथा बाँचा  करते थे...उस दिन भी वो यही कर रहे थे ....मैं  उनके पीछे पड़ गयी कि.... आप तो सत्यनारायण की कथा  बता ही नहीं रहे हैं ...हर १५ दिन में आप साधू बनिया कि कहानी सुना कर चले जाते हैं...मैं  तो वो कथा सुनना चाहती हूँ  जिसको नहीं सुनने से लीलावती, कलावती को समस्या हुई थी....पंडित जी कोई जवाब नहीं दे पाए और मैं  उनके पीछे पड़ी  ही रही .... और तुर्रा ये कि आज तक नहीं जान पायी हूँ...अब क्या करें अपनी तो आदत है कि हम कह देते हैं....


आज तक जो भी लिखा है दिल से लिखा है..और आगे भी दिल से ही लिखूंगी (जब तक हूँ)...हर दिन एक प्रविष्ठी की आदत हो गई है...विश्वास कीजिये जब तक ना लिखूँ...  खाना ही हज़म नहीं होता...आज भला कैसे हज़म हो जाता ..लिख ही दिया...



और ये रही आज की कविता ...

वो...

शुद्ध भाव प्रबुद्ध शैली
बोली बोले मीत सा
 

मैं ...
अधर अक्षम भाव जर्जर
गीत मेरा अगीत सा

वाणी मेरी क्षीण सी
अश्रु कोटर रीत सा
देह सकुचाई है मेरी
मन मगर विस्तृत सा

झुक गई गर्दन हमारी
झुक गए हैं नयन दोउ
कृतज्ञं हूँ ज्ञापन करूँ
यह अर्चना संगीत सा
सानिध्य तेरा स्वर्ग सा
हार, जीत प्रतीत सा
दृग मेरे पथ जोहते हैं 

प्रिय तू प्रथम प्रीत सा 


Sunday, January 24, 2010

कुछ बेचोगे बाबू...???...

पता नहीं क्या बात है इनदिनों कई पोस्ट्स अपने आप ही पब्लिश हो जा रहे हैं...क्या यह सिर्फ़ मेरी समस्या है या किसी दूसरे ने भी इस समस्या का सामना किया है ????



यह दुनिया एक मेला है
बिकती है हर चीज़ लेलो
क्या लेना है तुमको बाबू,
गाँठ खोलो और बोलो,

राम बिकते हैं, श्याम बिकते हैं
ले लो जी चारों धाम बिकते
ब्रह्मा बिकते हैं, महेश बिकते हैं
छोटे बड़े गणेश बिकते हैं
मौत बिकती है, जिंदगानी बिकती है
दुःख दर्द, परेशानी बिकती है
दिन बिकता है रात बिकती है
बिना बात के बात बिकती है
मैला आँचल, उजली साड़ी बिकती है
बगैर खून के नाड़ी बिकती है
वादे बिकते हैं, कसमें बिकतीं हैं
प्यार भरी कुछ रस्में बिकती हैं
घर बिकते है, वतन बिकता है
कभी गोरी का सजन बिकता है
सुर बिकता है, राग बिकते हैं
अभागों के भाग बिकते हैं
आवाज़ बिकती है,साज बिकते हैं
दबे-छुपे कुछ राज़ बिकते हैं
आँसू बिकते हैं, आहें बिकतीं है
सच्ची-झूठी चाहें बिकती हैं
दुआ बिकती है, आशीष बिकती है
कभी आँखों की कशिश बिकती है
ममता बिकती है, माँ बिकती है
दिलबरों की जाँ बिकती है
भरोसा बिकता हैं, विश्वास बिकता है
पूजा आस्था और आस बिकता हैं
कमजोर बिकते हैं शूर बिकते हैं
कभी आँखों के नूर बिकते हैं
जोश बिकता है, रवानी बिकती है
बुढापा, बचपन, जवानी बिकती है
धर्म बिकता है, कर्म बिकता है
जीवन का हर मर्म बिकता हैं
ज़ख्म बिकते हैं,चोट बिकती है
खरी तो खरी, खोट बिकती है

तुम भी कुछ बेचोगे बाबू
बड़ा ही अच्छा काम है
आँखों की बस शर्म बेच दो
आगे सब आसान है......

एक और अहल्या...



निस्तब्ध रात्रि की नीरवता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
अरुणिमा की उज्ज्वलता सी पडी हूँ
कब आओगे ?
सघन वन की स्तब्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
चन्द्र किरण की स्निग्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
स्वप्न की स्वप्निलता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
क्षितिज की अधीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
सागर की गंभीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
प्रार्थना की पवित्रता सी पड़ी हूँ
कब आओगे

हे राम ! तुमने एक अहल्या तो बचा लिया
एक और धरा की विवशता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?

Saturday, January 23, 2010

रामायण की चौपाइयाँ....





(यह कविता मैंने उस दिन लिखी थी, जिस दिन मेरे बड़े बेटे ने जन्म लिया था ,  अस्पताल के कमरे में उस पल चार पीढियाँ विद्यमान थी, नवजात, मेरी नानी, मेरी माँ और मैं , मेरी नानी के मुखारविंद पर जो ज्योति मैंने देखी थी, उसी को शब्द देने का मेरा प्रयास है )



खुरदरी हथेलियाँ,
रामायण की चौपाइयाँ,
श्वेत बिखरे कुंतल,
सत्य की आभा लिए हुए
उम्र की डयोड़ियाँ, फलाँगती फलाँगती
क्षीण होती काया
फिर भी,
संघर्ष और अनुभव का स्तंभ बने हुए


तभी !!
नवागत  को,
युवा से लेकर, अधेड़  ने,
बूढ़ी जर्जर पीढ़ी के हाथों में रखा
हाथों के बदलते ही,
पीढ़ियों का अंतराल दिखा 
सुस्त धमनियाँ जाग गयीं,
मानसून के छीटों सी देदीप्यमान हो गयीं
झुर्रियाँ आनन की
बाहर से ही मुझे,
चश्मे के अन्दर का कोहरा नज़र आया था,
शायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया था
नवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
हथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और ऊष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं


Friday, January 22, 2010

करना ही है कुछ तो फिर कमाल कीजिये....



फ़िज़ूल के न कोई भी सवाल कीजिये
कीजिये अजी  कुछ तो कमाल कीजिये

देखिये बह गया सड़क पे लाल-लाल 

कुछ सफ़े अब खून से भी लाल कीजिये

क्यूँ  छुपी हुई उम्मीद क्यूँ  डरे हुए बदन
चीखती सी रूह है  बवाल कीजिये




जग गई है हर गली जग गया वतन
बंद आखें खोलिए मशाल कीजिये

थामिए अब हाथ में  बागडोर हुजूर
प्रान्तवाद को यहीं  हलाल कीजिये 

कोई 'राज' छू न पाए आस्तीन को
वो जहाँ खड़ा रहे भूचाल कीजिये

चुप न अब बैठिये कह रही 'अदा'
लेखनी को आज ही कुदाल कीजिये

Thursday, January 21, 2010

'अदा' की आवाज़ में 'आपके हसीन रुख पे आज नया नूर है'..और एक कविता.....दूर के ढोल सुहावन भैया



यह एक पुरानी कविता है ..लेकिन अहसास आज भी वही है...

दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावें हैं
फोरेन आकर तो भैया
हम बहुत बहुत पछतावे हैं

जब तक अपने देस रहे थे
बिदेस के सपने सजाये थे
जब हिंदी बोले की बारी थी
अंग्रेजी बहुत गिटगिटाये थे
कोई खीर जलेबी अमरती परोसे
तब पिजा हम फरमाए थे
वहाँ टीका सेंदूर, साड़ी छोड़
हरदम स्कर्ट ही भाए थे

वीजा जिस दिन मिला था हमको
कितना हम एंठाए थे
हमरे बाबा संस्कृति की बात किये
तो मोडरनाईजेसन हम बतियाये थे
दोस्त मित्र नाते रिश्ते
सब बधाई देने आये थे
सब कुछ छोड़ कर यहाँ आने को
हम बहुत बहुत हड़ाबड़ाए थे

पहिला धक्का लगा तब हमको
जब बरफ के दर्शन पाए थे
महीनों नौकरी नहीं मिली तो
सपने सारे चरमराये थे
तीस बरस की उम्र हुई थी
वानप्रस्थ हम पाए थे
वीक्स्टार्ट से वीकएंड की
दूरी ही तय कर पाए थे

क्लास वन का पोस्ट तो भैया
हम इंडिया में हथियाए थे
कैनेडियन एक्स्पेरीएंस की खातिर
हम महीनों तक बौराए थे
बात काबिलियत की यहाँ नहीं थी
नेट्वर्किंग ही काम आये थे
कौन हमारा साथ निभाता
हर इंडियन हमसे कतराए थे
लगता था हम कैनेडा नहीं
उनके ही घर रहने आये थे
हजारों इंडियन के बीच में भैया
ख़ुद को अकेला पाए थे

ऊपर वाले की दया से
हैण्ड टू माउथ तक आये हैं
डालर की तो बात ही छोड़ो
सेन्ट भी दाँत से दबाये हैं
मोर्टगेज और बिल की खातिर
ही तो हम कमाए हैं
अरे बड़े बड़े गधों को हम
अपना बॉस बनाये हैं
इनको सहने की हिम्मत
रात दिन ये ही मनाये हैं
ऐसे ही जीवन बीत जायेगा
येही जीवन हम अपनाए हैं

तो दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावे हैं
फोरेन आकर तो भैया हम
बहुत बहुत पछतावे हैं

अब आप गाना सुनिए 'अदा' की आवाज़ में 'आपके  हसीन रुख पे आज नया नूर है'....
अरे बाबा !! हाँ.... हाँ .....हम जानते हैं ई गितवा रफ़ी साहब गाये हैं ..तो का हुआ ..हमको गाने में कोई कर्फु लगा है का...मन किया गा दिए हैं, अब सुन लीजिये न प्लीज ....!!





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Wednesday, January 20, 2010

ये ज़मीं खून से नहाई है



ये ज़मीं खून से नहाई है
देख अब आसमाँ की बारी है

लाशों के ढेर से मैं लिपटी रही
उसमें क़िस्मत मेरी बेचारी है

नींद आ जायेगी सुकूँ से मुझे
दिल में उसने छुरी उतारी है

है मकानों का क्या वो बनते रहे 
संग तेरे जीयें जिद्द हमारी है

आँखें काजल बिना हसीं हैं 'अदा'
इन में तस्वीर जो तुम्हारी है


Tuesday, January 19, 2010

दिल.!! हाय मेरा दिल ...!!


दिल या हृदय कुछ भी कह  लें , मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है.... एक अदना सा दिल या हृदय ..यही है जो असंख्य मानवीय क्रियाओं का निर्देशन करता है,...बिना हृदय के न प्रेम संभव है न ही क्रोध....इसके बिना न लाज, न काज, न सेवा और  न ही अपराध ...हर अच्छे बुरे काम के पीछे हाथ होता है दिल या हृदय का ..मानव शरीर का सबसे महत्वपूर्ण  अंग ... जो सपूर्ण संसार के मानवीय क्रीडाओं  का स्रोत बना हुआ है....

या यूँ कहिये कि... हृदय मानव शरीर रुपी भवन में विराजमान जीवन का रक्षक है ...हृदय रुका और जीवन समाप्त...इसलिए इस हृदय की देख-भाल, उसकी रक्षा तथा उसे स्वास्थ्य रखना ...जीवन रक्षा के लिए अतिआवश्यक है....

हृदय इतना सशक्त और क्रियाशील है कि अनेक वर्षों तक लगातार बिना थकन या शिथिलता दिखाए हुए अपना कार्य करता ही रहता है...यह कभीजल्दी से धोखा भी नहीं देता...प्रति मिनट ५ लीटर रक्त हमारी नाड़ियों में प्रवाहित करता रहता है...यह अबाध रूप से २४ घंटे अपना कार्य करता है...यह अचेतन मन कि भांति ऐसा अंग है जो न नींद जानता है न आराम...बस चलता रहता है ......चलता रहता है....
 

परन्तु अगर इस अमूल्य अंग का धारक इसकी देख-भाल ठीक से न करे तो इतना शक्तिशाली अंग भी रोगी हो सकता है....और तब इसे हम हृदय रोग से ग्रस्त कहते हैं ..

यूँ तो आज के तनावग्रस्त जीवन में हृदय रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है...लेकिन यह भी सच है कि हृदय रोग के इलाज में भी भारी उन्नति हुई है....अब विकार युक्त हृदय को सम्हाला जा सकता है..शल्य-चिकित्सा द्वारा हृदय को विकार मुक्त किया जा सकता है..

लेकिन हृदय को बीमार ही होने नहीं देना चाहिए  ...और यह बिलकुल संभव है ....थोड़े से बचाव के उपाय से..और इसके लिए आवश्यक है उन सभी परिस्थियों से दूर रहने की जो हृदय को रोगी बनाने के कारण हो सकते हैं...

निम्नलिखित
बातों को अगर अपनाया जाए तो हृदय रोग से बचा जा सकता है..



भाग दौड़ कम करें :
आज का जीवन बहुत ही भाग दौड़ से भरा हुआ है....अब देखिये न सुबह रेल, बस कुछ भी लेना होता है..हम अपने घर से ही देर से निकलते हैं...जाहिर सी बात है दौड़ कर ट्रेन या बस लेनी होती है...इसी काम के लिए अगर हम थोड़ा पहले निकले घर से ....तो ऐसे स्थिति ही नहीं आएगी..और हृदय को ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ेगी...हर काम योजना-वद्ध तरीके से करें..तथा जीवन व्यवस्थित और नियमित रखें... जिसमें भाग-दौड़ कम हो तो .....हृदय पर बोझ कम पड़ेगा और हृदय... हृदय रोग से बचा रह सकता है... 



नियमित व्यायाम :
वैसे तो व्यायाम करना सबको ही कठिन काम लगता है ..लेकिन नियमित व्यायाम स्वस्थ हृदय प्रदान  करता है....व्यायाम अचूक वाण है हृदय रोग के लिए...४५ वर्ष की आयु तक हर दिन प्रात ऐसा व्यायाम करें जिससे थकान  न हो  ....और फिर ४५ वर्ष कि आयु के बाद हर दिन सुबह टहलने जाना चाहिए....ऐसा करने से हृदय रोगी नहीं होता है...
योग एक और औषधि है हृदय रोग के निवारण के लिए...विशेष कर शवासन....यह रक्त चाप को संयमित रखता है.....वैज्ञानिक भी योग की महत्ता को मानते हैं ...दवाईयां तो ता-उम्र लेनी पड़तीं हैं ...और शरीर पर उनका बुरा असर भी पड़ता है...लेकिन योग हर हाल में बेहतर उपाय है...




भावावेश पर अंकुश : 
मानसिक तनाव, उन्माद, चिंता ये सभी हृदय रोग को अपनी तरफ खींचते  हैं ...
यदि आप सामाजिक रिश्तों और क्रिया-कलापों से दूर रहते हैं ..और जीवन में आपकी अभिरुचि का दायरा बहुत छोटा  है तो आपके  हृदय रोग से पीड़ित होने की सम्भावना है ...और भी अनेक कारण हो सकते हैं ...जैसे ...
यदि आपका भावावेश बहुत तीव्र और लम्बा होता है
यदि आप बहुत जल्दी नाराज हो जाते हैं और ऐसा बार-बार होते  हैं
यदि आप अधिक उत्तेजित, बेचैन और क्षुब्ध रहते  हैं
यदि आपका व्यक्तित्व बहुत अधिक सहनशील है 
यदि आप बहुत अधिक हठधर्मी और निर्णायक हैं

उन सभी मनुष्यों में जिनमें ऊपर बताई गयीं कमियाँ हैं हृदय रोग होता है या होने कि भरपूर सम्भावना है...


प्रत्येक मनुष्य  को हृदय रोग से बचने कि हर संभव कोशिश करनी चाहिए....सभी प्रकार के मानसिक और प्राकृतिक बुराइयों से बचना चाहिए...जैसे जुआरी होना अपने आप में हृदय रोग को जन्म नहीं देता लेकिन जुआ में हारना ..फिर नुक्सान की चिंता से ग्रस्त हो जाना ...इस नुक्सान से बाहर  निकलने की चिंता से रक्त चाप का बढ़ना, पसीना निकलना, पैर पटकना, चीखना-चिल्लाना, गुस्सा करना ..ये सभी हृदय रोग को जन्म देते हैं...
 

लेकिन ऐसा उस व्यवस्थित परिवार में नहीं होता है जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे के  गुण-दोषों से सामंजस्य स्थापित करके...एक-दूसरे की कोमल भावनाओं की कद्र करते हैं...



संतुलित भोजन  : 
बहुत ज्यादा वसा युक्त भोजन नहीं करना चाहिए...जैसे घी, मक्खन, पनीर इत्यादि...इनमें संतृप्त वसा होती है जिससे रक्त में 'कोलेस्ट्रोल' की अधिकता हो जाती है...जिससे हृदय रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती  है...मकई और मूंगफली के तेल या जैतून के तेल से कोलेस्ट्रोल नहीं बढ़ता है....




मोटापा कम करें :
अगर शरीर का वजन सामान्य वजन से ३० % ज्यादा हो जाए तो हृदय रोग होने की सम्भावना दुगुनी हो जाती है...सामान्य वजन किसी भी इंसान की उम्र और उसकी ऊँचाई के अनुपात में होता है...हर किसी को अपना सामान्य वजन  बनाये रखने की आवश्यकता है...इसके लिए नियमित खाएँ और उतना ही खाएँ जितनी आवश्यकता है ..उससे ज्यादा नहीं...
 

धूम्रपान, तम्बाकू और मादक पदार्थों के सेवन से बचें :
जो व्यक्ति  बहुत अधिक धूम्रपान करता है उसे यह नहीं मालूम है कि सिगरेट, बीड़ी  में 'निकोटिन' होती  है और यह 'निकोटिन' रक्त  में प्रवाहित होती है, निकोटिन  खून के थक्के बनाती है...और यही थक्के अचानक खून का दौरा रोक सकते हैं और असमय  मौत को बुला सकते  हैं...





रक्तचाप पर नियंत्रण :
रक्त चाप पर नियंत्रण बहुत आवश्य है ...इसे चाहे दवाओं से नियंत्रित किया जा सकता है या फिर योग से वैसे सबसे ज्यादा कारगर तरीका है  'शवासन' से..
ये कुछ आसन से तरीके हैं अपने प्यारे दिल की  देख-भाल के लिए ...इन्हें अपना कर देखिये ..कैसे आपका हृदय स्वस्थ और सुरक्षित रहेगा .....और फिर देखते जाइए आपका हृदय आपका कितना साथ देता है...!!

Friday, January 15, 2010

हिंदी समृद्ध है..


  

(इन दिनों थोड़ी सी व्यस्तता है..इस आलेख को अभी छापने का कोई इरादा नहीं था ..लेकिन यह स्वयं  ही छपने को तत्पर हो गया ..पता नहीं कैसे मेरी इच्छा के विरुद्ध छप गया...मुझे इसपर और थोड़ा काम करना था...दुर्भाग्यवश नहीं कर पायी हूँ....अब जब छप ही गया है, तो मैंने इसे स्वीकार कर लिया ....आप भी कर लीजिये ...धन्यवाद..)

 

हम सभी जानते हैं कि .....भाषा अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार जान  सकता है, इस संसार में अनेक भाषाएँ हैं, जैसे-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी, उर्दू, फ्रेंच , चीनी, जर्मन इत्यादि...

 

हमारी भाषा है ...'हिंदी'.....हिंदी अत्यंत  ही सजीव और प्रगतिशील भाषा रही है....क्योंकि  जन्मकाल से ही यह जनभाषा रही है...

 

विशुद्ध हिंदी का अर्थ यह नहीं कि सिर्फ़ 'तत्सम' और 'तद्भव' शब्दों का प्रयोग हो और 'विदेशज' शब्दों का बहिष्कार.... 

हिंदी ने  दूसरी भाषाओँ  के शब्दों को अपनाने में कभी कोई कोताही नहीं की है...

और यही ...हिंदी की समृद्धि का  बहुत बड़ा कारण है..

 

अक्सर हमलोग अपनी बोल चाल में ऐसे कितने ही शब्दों को प्रयोग में ले आते हैं...जिनका अविर्भाव या व्युत्पत्ति कहाँ से हुई है, हम जानते ही नहीं हैं...आज मेरे आलेख का उद्देश्य है ऐसे ही शब्दों  की पहचान कराना  और आपके समक्ष प्रस्तुत करना....साथ ही आप सब से अनुरोध है कि इस आलेख में आप अपनी तरफ से भी ऐसे शब्दों का योगदान करें...ताकि हमारे पाठक इससे लाभ उठा सकें...


विशेष रूप से विदेशज शब्दों की पहचान अगर हम करें तो ...समझ पाएँगे कि हिंदी का हृदय कितना विशाल है....जिसने अपने आँचल में कितनी ही भाषाओँ को जगह दी है...

जैसा कि आप सभी जानते हैं...उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार भेद हैं-:


१ . तत्सम- जो शब्द संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य, गृह  आदि...


२ . तद्भव- जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य), घर (गृह) आदि...


३ . देशज- जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि..


४ . विदेशी या विदेशज- हिंदी को विदेशियों के संपर्क में आने के कई अवसर मिले हैं और इस कारण उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं.. ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं.. जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची,अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि...


ऐसे कुछ विदेशी या विदेशज शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है :


अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पेन , टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल, ब्लॉग, चैनल, वेबसाईट  आदि...


फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि...


अरबी- औलाद, अमीर, क़त्ल , कलम, कानून, ख़त , फ़क़ीर , रिश्वत, औरत, क़ैदी , मालिक,  ग़रीब आदि...


तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि...


पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि...


फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि...


चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि...


यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि...


जापानी- रिक्शा आदि...


Wednesday, January 13, 2010

उलटबाँसी ....



समय का शकुनी फेंकता जाता कितने ही पाँसे
और युधिष्ठिर खाता जाता  हर कदम पर  झांसे
कर्ण झूठ का बन गया  हर दिन ही पर्याय
कुंडल-कवच बचाने  का  सोच रहा उपाय
उत्तरा अभिमन्यु के शव पर अब कभी विधवा ना होगी
और दु:शासन  की ताल पर ही द्रौपदी नृत्य करेगी
कृष्ण  बन गए  हैं सारथि दुर्योधन के रथ का
अर्जुन का गांडीव मुग्ध हुआ है भ्रष्टतम पथ का
गुरु  द्रोण को एकलव्य ने दिया पटकनी लगाय
मलयागिरि की भीलनी ज्यूँ  चन्दन देत जराय


और भीम का  पराक्रम भी धूसर पड़ा दिखाई
नकुल-सहदेव की बात हम अब का करें मेरे भाई
गांधारी  है आँखों वाली और  नयन लिए धृतराष्ट्र
सुबह-शाम अब  बेच रहे हैं धूम-धाम से राष्ट्र
अब कहाँ महाभारत है और कहाँ  कुरुक्षेत्र
अंतःकरण सब सुप्त हुआ मूंद गए हैं  नेत्र
कभी तो कोई बात बनेगी कहीं तो होगा न्याय
जब ऐसे दिन आवेंगे प्रभु मुझे दीज्यो बताय 



Tuesday, January 12, 2010

चुपके से सो जाते हैं





देखा है तुम्हें आज !!

कई सदियों बाद
उम्र की  परछाईयां
नज़र आती थीं तुम पर
सवालों के कारवां
उफन पड़े थे
निगाहों से
लेकिन !
फेर ली नज़रें
तुमने सबसे बचा कर
पूछा तो नहीं
मैं फिर भी बताती हूँ
किस्सा-ए-दिल
अपना हाल सुनाती हूँ
जिस दिन तुमने
निगाहें मोड़ी थीं
उसी दिन,
वफ़ा की मौत हो गई
सब्र चुपके से खिसक गई
और
उम्मीद भी फ़ौत हो गई
हम तेरी जफ़ा से
कफ़न उतार अपनी वफ़ा
को पहना आये थे
बाद में,
तेरी यादों के साथ
उसे दफ़ना आये थे
तब से 
हर रोज़ हम
उस मज़ार पे जाते हैं
जी भर के तुम्हें
खरी-खोटी सुनाते हैं
उसपर भी अगर
जी नहीं भरता
तो 
अश्कों के दीप जलाते हैं
और एक बार फिर
तेरी जफ़ा ओढ़ कर
क़ब्र-ए-मोहब्बत में
चुपके से सो जाते हैं...

Monday, January 11, 2010

यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता ...

भारत का गौरवशाली इतिहास...!!   जहाँ बलिदान की इतनी गाथाएं हैं..कि सितारों  की गिनती तक कम पड़ जाए...अगर हम अपने इतिहास की विवेचना करने बैठें तो महिलाओं के बढ़-चढ़ कर  योगदान देखने को मिलेंगे,  फिर चाहे वो  संस्कृति हो , परंपरा, राजनीति, अर्थव्यवस्था, युद्ध , शांति  या कुछ और , कोई भी विधा  अछूती नहीं रही है नारी स्पर्श से...


  चित्र : कस्तूरबा गाँधी 

अगर हम अपने स्वतंत्रता संग्राम की ही बात करें तो अनगिनत महिलाओं  का नाम मानसपटल पर प्रतिबिंबित होता है जो बहुत सक्रीय रहीं  ....सबसे पहली महिला  जिनका नाम ही स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है वो हैं 'श्रीमती कस्तूरबा गांधी' ....
कस्तूरबा  गाँधी,  महात्मा गांधी के स्वतंत्रता  कुमुक की पहली महिला प्रतिभागी थीं...निरक्षर होते हुए थी, कस्तूरबा गाँधी का अपना एक दृष्टिकोण था ...उन्हें आजादी का मोल, और महिलाओं में शिक्षा की महत्ता का पूरा भान था....स्वतंत्र भारत के  उज्जवल भविष्य की कल्पना उन्होंने ने भी की  थी और  हर कदम पर  अपने पति मोहनदास करमचंद गाँधी जी का साथ निभाया ....गांधी जी के सारे अहिंसक प्रयास इतने कारगर नहीं होते अगर 'बा' जैसी  आत्मबलिदान की प्रतीक  उनके गुट में नहीं होती... कस्तूरबा ने अपने नेतृत्व के गुणों का परिचय भी दिया था जब-जब भी  गाँधी जी जेल गए थे ....वो स्वाधीनता संग्राम के सभी अहिंसक प्रयासों में अग्रणी बनी रहीं...

चित्र : विजयलक्ष्मी पंडित
राष्ट्रीय   आन्दोलन में सक्रीय योगदान करने वाली महिलाओं में कुछ चमकते नाम हैं...विजय लक्ष्मी पंडित, सुचेता कृपलानी, सोरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट, और सैकड़ों हज़ारों नाम....
वैसे इस आन्दोलन में सभी महिलाएं अहिंसा की ही तरफदार थीं , ऐसा नहीं था ... कुछ  ऐसी भी थीं जिनके तौर तरीके  पूरी तरह से क्रांतिकारी थे....उनमें से कुछ नाम हैं...खुर्शीद बहन, लाडो रानी, अरुणा आसिफ अली, और सबसे ज्यादा अग्रणी रहीं शहीद भगत सिंह की सहयोगी 'दुर्गा भाभी'  और मैडम कामा ..


चित्र : मैडम कामा , तिरंगे के साथ
मैडम कामा की कहानी सबसे ज्यादा रोचक है ..उन्होंने गाँधी जी से भी पहले स्वतंत्रता  आन्दोलन शुरू कर दिया था ...और सन १९०७ में ही सरदार सिंह राणा के साथ मिलकर भारत का तिरंगा फहरा दिया था...और यह काम उन्होंने अन्तराष्ट्रीय समाजवादी सम्मलेन, स्टुटगार्ड, जर्मनी में किया था....साथ ही  गौरव की बात यह रही कि वहां सम्मिलित सभी अतिथियों ने खड़े होकर और  झंडे को सलामी देकर इसका  सम्मान भी किया था....
मैडम कामा ने बर्तानिया सरकार के हिंसक हथकंडों का इस्तेमाल करने पर बहुत कड़ी आलोचना की थी और ब्रिटिश सरकार को जवाब उन्हीं की भाषा में देने पर विश्वास करने लगीं थी ..वो  खुलेआम स्वीकार भी करतीं थीं कि बर्तानिया सरकार ने ही उन्हें हिंसक रुख अपनाने को विवश किया था....उनके इन विचारों का भगत सिंह और उनके साथियों पर काफी गहरा असर भी हुआ था....मैडम कामा को 'क्रांतिकारियों की माँ' भी कहा जाता था...

चित्र : दुर्गा भाभी और उनके पुत्र साची

दुर्गावती और सुशीलादेवी  दो बहनें थीं ...ये दोनों बहनें भुगत सिंह और उनके साथियों की सक्रीय सहयोगी थीं....दुर्गावती ..दुर्गाभाभी के नाम से मशहूर हुईं ...१८ दिसम्बर १९२८ को भगत  सिंह ने इन्ही दुर्गा भाभी के साथ वेश बदल कर कलकत्ता मेल से यात्रा की थी...
दुर्गाभाभी क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धरमपत्नी थीं...दुर्गाभाभी के  जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन वो था जिस दिन ..सरदार भगत सिंह और सुखदेव ने १७ दिसंबर १९२८ को  सान्डर्स को मौत के घाट उतारने के बाद, आगे की योजना की सलाह लेने दुर्गाभाभी के  पास आये...और  दुर्गा भाभी की ही सलाह मान कर,  १८ दिसम्बर १९२८ को सरदार भगत सिंह ने  एक अंग्रेज  की वेशभूषा में , दुर्गाभाभी और उनके बच्चों के साथ कलकत्ता मेल में वो ऐतिहासिक यात्रा की थी...यह यात्रा जो हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में चिन्हित हो गयी...


लाडो रानी  जुत्सी और उनकी दो पुत्रियों, जनक कुमारी जुत्सी और स्वदेश कुमारी जुत्सी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भरपूर हिस्सा लिया....लाडो  रानी ने  महिला सत्याग्रहियों की एक अलग मुहीम चलायी थी ...उन्होंने महिला सत्याग्रहियों की एक टोली भी बनायीं थी ... जो लाल पायजामा  , हरी कमीज और सफ़ेद टोपी पहनतीं थी...एवं  जो विशेषकर पंजाब लाहौर में कार्यरत थी..लाडो रानी बहुत ही निर्भीक और कट्टर राष्ट्रभक्त थीं..तथा  पूरी तरह गांधीवाद में विश्वास रखतीं थीं..,,

चित्र : अरुणा असफ अली 


अरुणा  आसिफ अली एक दृढ और तेजस्वी व्यक्तित्व की मालकिन थी ..उनका नाम १९४२ के आस-पास प्रकाश में आया.. वो अहिंसा को सम्मान देतीं थी लेकिन विश्वास नहीं...उनका नजरिया गाँधीवादी होते हुए भी अलग था..बाद में वो दिल्ली की महापौर बनी ..वो बहुत कुशल वक्ता थीं...








                                                                                                             चित्र : डॉ.कैप्टन लक्ष्मी सहगल


कुछेक नाम और भी हैं...जैसे एम्. एस. सुब्बालक्ष्मी, जो एक कलाकार होते हुए भी आज़ाद हिंद फौज में सक्रीय रहीं, वो नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की बहुत विश्वासपात्र थीं और उनके साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलतीं रहीं...

डॉ.कैप्टन लक्ष्मी सहगल भी एक ऐसा ही ज्वलंत नाम है....१९३८ में लक्ष्मी सहगल ने डाक्टरी की पढ़ी पूरी की ओर १९४० में वो सिंगापुर चली गयीं...उन्होंने सिंगापूर से ही स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान श्री सुभाष चन्द्र बोस की 'मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा ' आदर्श के झंडे तले  किया...






चित्र : सरोजिनी नायडू

सरोजिनी नाइडू, विजय लक्ष्मी पंडित, सुचेता कृपलानी ये भी कुछ ऐसे नाम हैं जो भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों  में अपनी जगह बना चुके हैं...
सरोजिनी नायडू को स्वतंत्रता संग्राम में 'भारत की कोकिला'  कहा गया, वो अत्यंत  संवेदनशील और नाज़ुक मिजाज़ महिला थीं ..उन्होंने अपने कवि हृदय से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान किया ...




चित्र : राजकुमारी अमृतकौर 
राजकुमारी अमृतकौर..कपूरथला की रहनेवाली ..१६ वर्षों तक उन्होंने गाँधी जी के लिए सचिव के रूप में काम किया ...अनेकों बार जेल गयी और असंख्य बार लाठी खायी.... आज़ादी के बाद वो भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनीं...





चित्र : दुर्गाबाई देशमुख
स्वतंत्रता संग्राम में एक और नाम महत्वपूर्ण है ...नाम है दुर्गाबाई देशमुख....इन्होने गाँधी जी के नमक सत्यग्रह में भी हिस्सा लिया था ..आयरन लेडी के नाम से प्रसिद्धि पायीं थी इन्होने ...बर्तानिया अधिकारियों को इनसे १९३० में ज़बरदस्त मुंहकी  खानी पड़ी थी ...इन्होने 'आंध्र महिला' नामक एक पत्रिका का सम्पादन भी किया था...


 और ना जाने कितने नाम हैं जिन्हें हमें याद करना चाहिए और श्रद्धा सुमन अर्पित करना चाहिए...लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूरी है,  यह समझना कि ना सिर्फ़ स्वतंत्रता के संघर्ष अपितु जीवन के  हर संघर्ष सिर्फ़ पुरुषों का ही विशेषाधिकार नहीं है....महिलाओं ने हमेशा बढ़-चढ़ कर भाग लिया है और सफलता प्राप्त करतीं रहीं हैं ....हमारी नारियां आज भी हर क्षेत्र में अग्रणी हैं और  आगे भी रहेंगी ...कब कौन रोक पाया है इन्हें जो अब रुकेंगी...??

Sunday, January 10, 2010

कहाँ जा रही हो हिंदी ???



ब्लॉग जगत में हिंदी और देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर पर साक्षात् देखकर जो ख़ुशी होती है, जो सुख मिलता है, जो गौरव प्राप्त होता है यह बताना असंभव है, अंतरजाल ने हिंदी की गरिमा में चार चाँद लगाये हैं, लोग लिख रहे हैं और दिल खोल कर लिख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो भावाभिव्यक्ति का बाँध टूट गया है और यह सुधा मार्ग ढूंढ-ढूंढ कर वर्षों की हमारी साहित्य तृष्णा को आकंठ तक सराबोर कर रही है, इसमें कोई शक नहीं की यह सब कुछ बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा हो रहा है, और क्यों न हो अवसर ही अब मिला है,


इन सबके होते हुए भी हिंदी का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखता है, विशेष कर आनेवाली पीढी हिंदी को सुरक्षित रखने में क्या योगदान देगी यह कहना कठिन  है और इस दुर्भाग्य की जिम्मेवारी तो हमारी पीढी के ही कन्धों पर है, पश्चिम का ग्लैमर इतना सर चढ़ कर बोलता है की सभी उसी धुन में नाच रहे हैं, आज से ५०-१०० सालों के बाद 'संस्कृति' सिर्फ किताबों (digital format) में ही मिलेगी मेरा यही सोचना है, जिस तरह गंगा के ह्रास में हमारी पीढी और हमसे पहले वाली पीढियों ने जम कर योगदान किया उसी तरह हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को गातालखाता, में सबसे ज्यादा हमारी पीढी ने धकेला है, आज पढ़ा-लिखा वही माना जाता है जो आंग्ल भाषा का प्रयोग करता है, हिंदी बोलने वाले पिछड़े माने जाते हैं, आज के माँ-बाप गर्व से बताते नहीं थकते कि उनका बच्चा कैसी गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलता है, फिर भी आज की पीढ़ी यानी हमारे बच्चे तो हिंदी फिल्में देख-देख कर कुछ सीख ले रहे हैं , लेकिन उनके बच्चे क्या करेंगे?


लगता है एक समय ऐसा भी आने वाला है जब सिर्फ एक भाषा और एक तथाकथित संस्कृति रह जायेगी, जिसमें 'संस्कृति' होगी या नहीं यह विमर्श का विषय हो सकता है


बहुत अच्छी बात यह हुई है कि इस समय लोग हिंदी लिख रहे हैं, वर्ना हम जैसे लोग, जो विज्ञानं के विद्यार्थी  थे,  हिंदी लिखने-पढने का मौका ही नहीं मिला  था, कहाँ पढ़ पाए थे हम हिंदी, एक पेपर पढ़ा था हमने हिंदी का MIL(माडर्न इंडियन लैंग्वेज), न तो B.Sc में हिंदी थी, न ही M.Sc. में, हिंदी लिखने-पढने का मौका तो अब मिला है, इसलिए जी भर कर लिखने की  कोशिश करते हैं


कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य



हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है उसकी उपयोगिता, आज हिंदी का उपयोग कहाँ हो रहा है, गिने चुने शिक्षा संस्थानों में और शायद 'बॉलीवुड' में, 'बॉलीवुड' ने भी अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए है, संगीत, situation सभी कुछ पाश्चात्य सभ्यता को आत्मसात करता हुआ दिखाई देता है, अब सोचने वाली बात यह है  कि 'बॉलीवुड' समाज को उनका चेहरा दिखा रहा है या  कि लोग फिल्में देख कर अपना चेहरा बदल रहे हैं, वजह चाहे कुछ भी हो सब कुछ बदल रहा है, और बदल रही है हिंदी, सरकारी दफ्तरों में भी सिर्फ अंग्रेजी का ही उपयोग होता है,  हिंदी के उपयोग के लिए बैनर तक लगाने की ज़रुरत पड़ती है, कितने दुःख कि बात है !!


मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ,  सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...


हर हाल में हिंदी पढने वालों को अपना भविष्य उज्जवल नज़र आना चाहिए...
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??

Saturday, January 9, 2010

विभा.....


कानून  पत्नी को पति  की जायदाद में अधिकारी मानता है...
अगर पति की मृत्यु  हो जाए तो, पति की सम्पति की वारिस पत्नी  ही होती है...
यूँ तो कौन स्त्री कभी चाहेगी विधवा होना लेकिन कभी कभी नियति के कुचक्र का प्रहार किसी पर हो ही जाता है..और तब  जब कभी कोई विधवा हो जाती है,  तो हमारा समाज उसके साथ कैसी बेइंसाफी करता है साथ ही स्वार्थी तत्व किस तरह बलात, कमजोर विधवा के ऊपर  कानून लाद कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश करते हैं ...यह संस्मरण  इसी बात को बताता  है ...और इस समाज को आईना भी दिखाता है.....


विभा नाम है उसका...व्यवसायी परिवार की लड़की है ....माँ बाप ने  अच्छा खासा दान-दहेज़ देकर उसका विवाह पटना के श्री सत्यपाल प्रसाद के साथ कर दिया....विभा भी ससुराल आकर और अपने पति का सानिध्य पाकर बहुत खुश थी...ससुराल में ..सास-ससुर, जेठ-जेठानी और एक 'परित्यक्ता' ननद और उसका एक बेटा साथ रहते थे.....घर में जेठ और ननद की ही चलती थी.... ननद बहुत खुश नहीं रहती थी...'परित्यक्ता' का जीवन जीना भारतीय समाज में कठिन तो है चाहे कितना भी जीवन यापन भत्ता मिलता हो....


विभा के सर पर मुसीबतों का पहाड़ उस दिन टूटा,  जिस दिन उसके पति सत्यपाल की मृत्यु जीप एक्सिडेंट में हुई....पति  के इस आकस्मिक निधन से विभा की दुनिया तो बस उजड़ ही गयी....शादी के मात्र २ साल में ही हाथों कि मेहंदी उतर गयी...विभा के कोई संतान भी तो नहीं थी कि अपना कुछ दिल लगा लेती...
विभा का पति बहुत ही काबिल इंसान था...वो हर मामले में अपने बड़े भाई से बेहतर था...उसने अपने बड़े भाई से ज्यादा संपत्ति अर्जित कि थी  ...वो घर का कमाऊ पूत था....और अब उसकी पूरी कमाई बंद हो गयी जिससे घर की  परिस्थिति में फर्क पड़ने लगा....लेकिन विभा के व्यक्तिगत खर्चे तो थे ही ...जाहिर था  अब वो खर्चे परिवार के अन्य सदस्यों को खलने लगे थे...


विभा और बाकि लोगों में एक और फर्क था.....विभा शिक्षित थी और समझदार भी..जबकि उसके जेठ के परिवार में शिक्षा के प्रति लोग उदासीन थे...इसलिए विभा की समझदारी की बातें उन्हें समझ में नहीं आती थी...


धीरे-धीरे विभा के प्रति लोगों का रवैय्या बदलने लगा, उसके सारे गहने सास के कब्ज़े में चले गए, दिन-प्रतिदिन के व्यक्तिगत खर्चों के लिए वो मोहताज हो गयी और विभा आभाव की  प्रतिमूर्ति बन कर रह गयी...


बात इतने पर ही ख़त्म नहीं हुई थी,  जब-जब भी विभा ने अधिकार के लिए ज़बान खोलने की कोशिश की उसे पूरे परिवार के आक्रामक रवैय्ये का सामना करना पड़ा...आये दिन मार-कुटाई भी शुरू हो गयी...


मेरी ससुराल भी पटना में ही है और विभा वहाँ मेरी पड़ोसन है  ....मैं कुछ साल पहले , कुछ दिन के लिए गयी थी अपने  ससुराल....बस यूँही एक दिन पड़ोस में पहुँच गयी विभा के घर ...  .पूरे घर का माहौल ही अजीब था....विभा को देखा ....आभा विहीन थी वो...मन में एक टीस सी उठी थी....और दाल में कुछ काला भी, बस  मैं उससे बात करने की जोगाड़  में जुट गयी...


एक दिन दोपहर जब ज्यातर लोग घर से बाहर  थे और जो  घर में थे वो भी सो रहे थे ...मैं अन्दर चली गयी....और विभा का हाथ पकड़ कर ले आई अपने  घर....मेरी सास को पसंद नहीं आया था उसका मेरे घर आना...लेकिन मुझसे कुछ कह नहीं पायीं.....


विभा से बात करके मुझे पता चल गया कि लाखों कि सम्पति की वारिस विभा को कितनी प्रताड़ना भरे दिन देखने को मिल रहे हैं...और इसमें उसकी सास उसकी ननद और उसके जेठ सबका हाथ है....
विभा की गला दबा कर हत्या करने की भी कोशिश की गयी थी जिसमें ...टांगें सास ने पकडे थे हाथ ननद ने और गला दबाने का उपक्रम जेठ ने किया था...वो तो भला हो ससुर का जो इसमें उनका साथ नहीं दे पाए....


विभा की कोई संतान नहीं है...वो उस घर से निकलना भी नहीं चाहती अगर वो ऐसा करेगी तो संपत्ति से हाथ धो बैठेगी.....जो भी समय मुझे  दस-पंद्रह दिन  में मिला उसको ढाढस, और संघर्ष करने का साहस बनाये रखने की प्रेरणा देती रही....मेरे पति के रिश्ते के जीजा लगते  हैं हजारीबाग के एस .पी . थे उन दिनों ..Mr सुबर्नो उनसे बात करवा दी...जिससे हिम्मत बनी  रहे विभा की....कल ही बात की उससे.....नए साल की बधाई देने ले लिए फ़ोन किया था...कह रही थी कुछ भी नहीं बदला है दीदी.....सब कुछ वैसा ही है....आप फ़ोन करते रहा कीजिये....अच्छा लगता है आपसे बात करना......


और मैं सोच रही हूँ इस हक की लड़ाई में विभा जीतेगी  या हारेगी..यह तो समय ही बताएगा...लेकिन एक बात स्पष्ट है....की मध्ययुगीन प्रवृतियां आज भी हमारे समाज  में कहीं-कहीं व्याप्त हैं ...क्या हम सचमुच ख़ुद को प्रगतिशील, नीतिवान, ईमानदार आधुनिक कहने का हक रखते हैं...???

हिन्दू उतराधिकारी अधिनियम १९५६ के प्रावधानों के तहत विधवा अपने पति के हिस्से की पुश्तैनी संपत्ति तथा पति की अर्जित संपत्ति की उत्तराधिकारी है...

Friday, January 8, 2010

सिंहनी के लेंहड़े...!!!



साहसी लोगों के झुण्ड के झुण्ड हैं। कौन कहता है कि सिंहों के लेंहड़े नही होते। यहां आओ और देखो। ढेला उठाओ और दो शेर निकलेंगे उसके नीचे – कम से कम। साहस के लिये चरित्र फरित्र नहीं चाहिये। की-बोर्ड की ताकत चाहिये। टाइगर कागज से बनते हैं। सिंह की-बोर्ड से बनते हैं

मानसिक हलचल वाले सर्वश्री ज्ञानदत्त जी ने क्या बात कह दी.....सचमुच नत-मस्तक हूँ मैं, उनके  सामने....
उनकी  बातों से हृदय से सहमत होते हुए आप सभी पाठकों को कुछ और भी दिखा देती हूँ.....यह है साहस का एक और नमूना....

हम-आप टिपण्णी को रोते रहते हैं....यहाँ तो पूरी की पूरी चिटठा चर्चा साहस का प्रतीक बनी हुई है.....चर्चा है जी नाम गायब.....अब इस साहस पर भला कौन न बलिहारी जावे....अब ई भी हमको मालूम नहीं कि 'लेंहड़े' सिंहनी का होता भी है कि नहीं....अगर जो होता है तो सिंहनी जी कहाँ हैं...और ईहाँ 'लेंहड़े' है भी कि नहीं ???  अगर लेंहड़े इसी को कहते हैं तो अपने भरपूर साहस का परिचय देते हुए सिंहनी निकल  लीं और रख गयीं हैं...'लेंहड़े' ..दर्शन कर लीजिये....

लेकिन इन सारी बातों में बस एक बात अहम् है वो है 'साहस' ...वो है कहाँ  ??  आज कल दिखाई नहीं पड़ता है...अगर वो मिले तो उसे हिंदी ब्लॉग जगत तक ज़रूर पहुंचा दीजियेगा....ज़रुरत है उसकी यहाँ...

यूँ तो मुझे बेफजूल कि बात करने की आदत तो है नहीं....फिर भी हम सोचे कि आप अकेले काहे दुखी होवेंगे...एक दुखी दूसरे दुखी को देखे तो तनिक ढाढस  होता है...
फिर ई भी सोचे कि अब ईहाँ  कोई आता जाता नहीं इनदिनों...थोड़ी मदद भी हो जावेगी. ..टी.आर.पी. में..:):)