Monday, November 30, 2009

लिखा न जाए...और बस गा दिया है ....

बहुत दिनों के बाद आज कविता लिखना चाहा ....
बस कुछ लिख दिया है...देखिये...
वाणी, समीर जी, पाबला जी बस गा दिया है....बताइयेगा कैसा लगा...

अब कैसे मैं कलम उठाऊं नाम लिखा ना जाए
हाल-ए-दिल कैसे कह दूं जो सलाम लिखा ना जाए

ज़ज्ब हुईं हैं रूह में मेरी जाने कितनी नज्में
खुद ही ग़ज़ल हुए हैं और कलाम लिखा ना जाए

धूप खड़ी है कोने में और रात दौड़ती भागे
लौट आये हैं पंछी फिर भी शाम लिखा ना जाए

चुने ख्यालों ने कितने ही हर्फ़ थे बिखरे-बिखरे
सोच के घोड़ो पर हमसे तो लगाम लिखा ना जाए

दिल में देखो आज 'अदा' के हिज्र का मौसम छाया
निकल गए हैं रंजो-ग़म तमाम लिखा ना जाए



फिल्म : अनपढ़
संगीतकार : मदन मोहन
गीतकार : रजा मेहंदी अली खान
आवाज़ : लता

लेकिन यहाँ आवाज़ हैं...स्वप्न मंजूषा 'अदा'

आप की नज़रों ने समझा, प्यार के काबिल मुझे
दिल की ऐ धड़कन ठहर जा, मिल गई मंज़िल मुझे
आप की नज़रों ने समझा

जी हमें मंज़ूर है, आपका ये फ़ैसला \- २
कह रही है हर नज़र, बंदा\-परवर शुकरिया
हँसके अपनी ज़िंदगी में, कर लिया शामिल मुझे
आप की नज़रों ने समझा ...

आप की मंज़िल हूँ मैं मेरी मंज़िल आप हैं \- २
क्यूँ मैं तूफ़ान से डरूँ मेरे साहिल आप हैं
कोई तूफ़ानों से कह दे, मिल गया साहिल मुझे
आप की नज़रों ने समझा ...

पड़ गई दिल पर मेरी, आप की पर्छाइयाँ \- २
हर तरफ़ बजने लगीं सैकड़ों शहनाइयाँ
दो जहाँ की आज खुशियाँ हो गईं हासिल मुझे
आप की नज़रों ने समझा ...

Sunday, November 29, 2009

जाते थे जापान पहुँच गए चीन...समझे क्या.....


परसों एक टिप्पणी विशेष को मैंने मुद्दा बनाया था और आप लोगों से उस पर आपके विचार जानना चाहा था......शायद में अपनी बात ठीक तरीके से रख नहीं पायी थी...इसलिए बात भटक कर व्यक्तिगत आक्षेप पर पहुँच गयी...मैंने बहुत स्पष्ट रूप से कहा था की...यह टिप्पणी व्यक्ति विशेष द्वारा सखेद हटाई जा चुकी है.....और अब दोषारोपण का कोई तर्क नहीं बनता ....फिरभी कुछ लोगों ने उक्त टिप्पणी पर अपना रोष भी व्यक्त किया...और कुछ ने अत्यधिक रोष व्यक्त किया जैसे की 'अर्क्जेश जी' ....अत्यधिक रोष में लिखी गयी टिप्पणी भी निसंदेह 'नारी' के पक्ष की बातों से लबरेज़ थी लेकिन भाषा में संयम की कमी स्पष्ट दृष्टिगत था मैं किसी को भी कोई सीख देने की चेष्टा नहीं कर रही हूँ.....बस एक सामान्य शिष्टाचार की ही बात कर रही हूँ...अगर मेरी बात से किसी को ज़रा सी भी दुःख पहुँच रहा है.....ख़ास करके 'अर्क्जेश जी' से मैं कर-वद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ....

बात करते हैं मुद्दे की तो इस विषय पर मिझे सिर्फ हिमांशु जी से ही टिप्पणी मिली ...जिसमें उन्होंने अपना मंतव्य दिया....और किसी ने भी..इस विषय पर कुछ भी नही कहा ......कुछ ही देर में मेरी पोस्ट अपना ध्येय खो चुकी थी ..बात उस चर्चा से विलग होकर बिलकुल अलग पटरी पकड़ने लगी थी ...इसलिए ब्लॉग moderation जैसी सुविधा का लाभ उठाते हुए मैंने वो पोस्ट रद्द कर दी ....लेकिन मुद्दा अब भी वहीँ बरकरार है...इसीलिए नए सिरे से उसी चर्चा को लेकर पुनः उपस्थित हूँ....
उक्त टिप्पणी को मुद्दा बनाने का मेरा एकमात्र मकसद था इसप्रकार के दृष्टिकोण को समझना और कुछ बहुत ही ज्वलंत मुद्दे को सामने लाना ......जैसे ...हमारे समाज में शादी-शुदा स्त्री ज्यादा सम्मानित मानी जाती है और तलाक-शुदा कम....जब की तलाक शुदा महिला शायद शादी-शुदा से ज्यादा संस्कारी हो सकती है.......लेकिन समाज की यह मानसिकता क्या उचित है...? अगर नहीं तो क्यूँ न हम इसी मंच पर इसे बदलने की पहल करें....

अत्यधिक प्रसन्नता के साथ सूचित कर रही हूँ की ९९.९% लोगों ने 'नारी' के प्रति ह्रदय से अपना सम्मान व्यक्त किया....अपने जीवन में उनकी महत्ता को स्वीकारा है...कुल मिला कर जो बात समझ में आई है वो ये की स्थिति उतनी भयावह नही है जितनी लोगों को लगती है....'नारियों' को positive mentality के mode में आना होगा..... परुष वर्ग बदल रहा है..या यूँ कहें बहुत हद्द तक बदल गया है..(मैं तालेबान की बात नहीं कर रही हूँ ) ....और इस बदलाव के लिए पुरुषों को due credit देना ही होगा.......नारियों से अपील है...एक बार रुक कर पीछे मुड़ कर कल को देखें ...फिर सोचें हमने क्या पाया है....यकीनन आपको ख़ुशी होगी.....उस ख़ुशी को चखिए फिर आगे बढिए.....और फिर ख़ुद को थोड़ा और बदलिए.....लोग आप को देख कर खुद ही बदल जायेंगे......
यहाँ मैं कुछ टिप्पणी के अंश डाल रही हूँ जो कल आई थी..कुछ टिप्पणी बहुत लम्बी हैं, कुछ मुद्दे से अलग हैं...और कुछ आक्षेप......इसलिए सभी टिप्पणी नही हैं यहाँ ..
कुछ टिप्पणी बहुत ही मेहनत से लिखी गयी थी और सारगर्भित थी जैसे श्री प्रकाश पाखी जी ने अपने अनुभव के साथ अपने विचार व्यक्त किये थे ...बस लम्बी होने के कारण उसे नहीं डाल पाई हूँ.....प्रकाश जी आपका ह्रदय से धन्यवाद...

November 27, 2009 5:20 AM
जी.के. अवधिया said...
हमारी संस्कृति में आरम्भ से ही नारी को सम्मान मिलता आया है। हाँ मध्ययुग में अवश्य ही, विदेशी शासन से प्रभावित होकर, नारी को हेय दृष्टि से देखा गया किन्तु उस युग के समाप्त होने के बाद नारी ने पुनः अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।
वास्तव में नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का जीवन अपूर्ण है। यह भी सत्य है कि कुछ मामलों में नारी कमजोर होती है और कुछ मामलों में पुरुष।
सामान्य मनःस्थिति वाला पुरुष या नारी सदैव एक दूसरे को सम्मान ही देते हैं।

November 27, 2009 5:35 AM
हिमांशु । Himanshu said...
निःसन्देह नारीत्व का सम्मान न हो, तो पुरुष के पुरुषत्व का बहुत कुछ अप्रासंगिक हो जाता है ।
इस बात से पूर्णतया असहमत भी हूँ कि तलाकशुदा नारी सम्मान के योग्य न समझी जाय ! यह प्रक्रिया अकेले नारी की पहल पर नहीं होती/ नहीं हो सकती ।
जी०के०अवधिया जी ठीक कहा - "सामान्य मनःस्थिति वाला पुरुष या नारी सदैव एक दूसरे को सम्मान ही देते हैं।"

November 27, 2009 5:42 AM
श्रीश पाठक 'प्रखर' said...
ईकार के बिना शिव भी शव हैं..
हाँ; दी..! आपकी पोस्ट के बहाने थोड़ी सी चर्चा तिर्यक हो चली थी...ठीक समय पर हस्तक्षेप किया आपने. नर-नारी, दोनों अपनी-अपनी विभिन्नताओं/विशिष्टताओं के साथ लिए जाने चाहिए. यदि कहीं चूक हुई है/हो रही है,, तो विमर्श और परस्पर व्यवहार से उसमे सुधार आ जाना चाहिए. नारी विमर्श 'पुरुष' से अलग होने या उसे खारिज कर देने का विमर्श नहीं है. नारी विमर्श दर असल एक कच्ची और बेकार सोच के खिलाफ है जो नारी को 'मनुष्य' होने का गौरव भी छीन लेती है. कर्तव्य और अधिकार का सुन्दर संतुलन साधना है स्त्री के लिए भी और पुरुषों के लिए भी. इस संतुलन की कसौटी दोनों मिलके तय करेंगे..अपनी-अपनी सीमायें और विशिष्टता महसूसते हुए...बिना इस शाश्वत तथ्य को भुलाए कि दोनों को दोनों की अनिवार्य और शाश्वत जरूरत है.....!!!
आभार दी..! एक चर्चा को फिर से पटरी पर लाने के लिए...!

27, 2009 5:56 AM
अजय कुमार झा said...
मैं अपनी माता जी, घर की सभी बडी बूढी महिलाओं, बहन छोटी बडी, पत्नी, बिटिया , साथ में काम करने वाली सहकर्मी महिलाओं और आस पास जो भी संपर्क या संबंध में है उनका सम्मान करता हूं ,स्नेह करता हूं ...और इसके अलावा कुछ नहीं कर पाता ...सोचता हूं कि यदि सब सिर्फ़ यही कर सकें तो ..स्थिति बदल जाएगी न ...मुझे तो ऐसा ही लगता है ..
अजय कुमार झा

November 27, 2009 6:05 AM
shikha varshney said...
नारी और पुरुष एक दुसरे के पूरक है और एक दुसरे के बिना अधूरे.न पुरुष नारी की बराबरी कर सकता है न नारी पुरुष की...अवधिया जी ने एकदम ठीक कहा है
सामान्य मनःस्थिति वाला पुरुष या नारी सदैव एक दूसरे को सम्मान ही देते हैं।

November 27, 2009 6:01 AM
गिरिजेश राव said...
नर नर है
नारी नारी है

69
की तरह
घूमता संतुलन
घूमती सिमेट्री
न नर को नारी होना है
और न नारी को नर होना है।
बस ध्यान दीजिए
वर्तुल सममिति में दोनो अपना स्वतन्त्र अस्तित्त्व बनाए हुए हैं
लेकिन कितने एकाकी और कितने अधूरे लगते हैं, यदि उन्हें अलग कर दिया जाय।
इस तरह का जुड़ाव और अधूरापन ही तो सृष्टि को रचता है।

November 27, 2009 6:47 AM
Anonymous said...
yah koi choti bat nahin hai. mahfooz bhai ne kshma mag li theek. lekin aaj bhi adhikansh purush samaj nari ko pair ki jooti samajhne se gurez nahin karta. yah bahut gahre gulamipasand sanskaron ke avshesh hain. naye samaj ki rachna mein inka jadmool se saf ho jana jaroori hai. aakhir purush ka ahnkar hai kis bat ko lekar? nari na ho to aadmi ki keemat do kodi ki nahin. jeevan ka soundary pradhantya nari se hai na ki purush se

November 27, 2009 7:16 AM
वन्दना said...
g k avadhiya ji ne kitne suljhe tarike se nari aur purush ke astitva ko paribhashit kiya hai........mere khyal se uske baad to kahne ko kya bacha.ye ek bahut hi umda prashn aapne uthaya aur sahi tarike se uthaya hai.aapki soch bahut hi pragtisheel hai.
November 27, 2009 7:30 AM

मनोज कुमार said...
यह रचना --- --- समस्या के विभिन्न पक्षों पर गंभीरती से विचार करते हुए कहीं न कहीं यह आभास भी कराती है कि अब सब कुछ बदल रहा है।
November 27, 2009 9:11 AM

एक ख़ास व्यक्ति से......महफूज़ मियाँ......हमने आपका माफीनामा फिर से छाप दिया है.....सभी जानते हैं आप दिल के बहुत अच्छे इंसान हैं....आपकी कवितायें लोगों में नयी उर्जा का संचार करतीं हैं.....कितनो को आपसे प्रेरणा मिलती है......इसे बरकरार रहने दीजिये........बस अब कान पकड़ कर उठक-बैठक लगा ही दीजिये...फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेंगे....किसी की भी भावना को ठेस नहीं पहुंचाएंगे आप .....सोच समझ कर टिपण्णी करेंगे.......सबसे वादा कीजिये.....

महफूज़ अली said...
मैं अपने शब्द वापिस लेता हूँ..... वो मैंने गुस्से में कहा था.... पता नहीं क्यूँ मैं इतना short temper हूँ.. ?? मेरा वो मतलब कतई नहीं था.. मैं खुद बहुत सुलझा हुआ इंसान हुआ हूँ..... बस ! इतना हो जाता है कि मैं गुस्से में आपा खो देता हूँ.... जिसका मुझे प्रक्टिकल लाइफ में भी खामियाज़ा भुगतना पड़ता है.... मेरे कमेन्ट खराब लगे हैं और खराब थे..... इसके लिए मैं समस्त नारी जगत से माफ़ी मांगता हूँ.... और वादा करता हूँ कि आइन्दा आपा नहीं खोऊंगा.....मैं समस्त ब्लॉग जगत से माफ़ी मांगता हूँ..... उम्मीद है सब भाई , बहन व दोस्त मुझे ... भाई, दोस्त, बेटा समझ कर माफ़ कर देंगे...... यही समझ लीजियेगा आप सब लोग कि नादानी में एक वाहियात गलती हो गयी....... मैं अपने शब्द वापिस लेता हूँ

महफूज़ साहब ने बड़ी सच्चाई से अपनी गलती मान कर यह साबित कर दिया की वो न सिर्फ एक अच्छे रचनाकार हैं अपितु एक अच्छे इंसान हैं...

यूँ तो ब्लॉग जगत में आक्षेप-प्रत्याक्षेप का बाज़ार हर वक्त गर्म रहता है...हम अपनी सहनशक्ति की कमी दिखाते ही रहते हैं.....लेकिन मैं एक नारी हूँ और शरीर से चाहे मैं निर्बल हूँ लेकिन कुछ गुण है जिसमें मैं आप से कहीं आगे हूँ और वो है सहनशक्ति, धीरज और गरिमा.....और मुझे यह कहते हुए भी ख़ुशी है की उम्र के साथ-साथ मुझमे और मुझ जैसी नारियों में यह सदगुण बढ़ता ही जाता है......जिसने स्वयं को नारी कहा और यह गुण नहीं दिखाया उसे 'नारी' मानने से मुझे इनकार है.....

(वैसे तो मुझे सबके ब्लॉग का लिंक देना चाहिए था लेकिन समयाभाव के कारण नहीं कर पायी...क्षमा चाहूंगी )

Wednesday, November 25, 2009

सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है....

वैसे तो हम अपने काम से काम रखती हूँ, या तो कविता लिखती हूँ या फिर गीत गाती हूँ, और इन दोनों कामों में बहादुरी ही ज़रुरत नहीं होती, लेकिन पिछले दो दिनों से एक काम और कर दिया हूँ 'बहादुरी', एक-दो आलेख पढ़े जिनमें 'आँचल पायल' का बात किये थे लोग, हमहूँ सोचे अरे इ तो fantastik बात है, दुनो चीज़ हमको भी बहुते पसंद है, बस कूद गए 'पायल की झंकार रस्ते-रस्ते' गाते हुए, अब कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि सबको हमरा गीत पसंदे आ जाए बस, नहीं आया पसंद, और हमरी लुटिया डूब गयी 'नारी' ब्लाग पर, इ बात में कौनो पिरोब्लेम नहीं है, उ अपने घर खुस हम अपने घर, लेकिन सोचे कि जाते-जाते गुड बाय भी कह दें, और हमरे बुद्धि से जो बात जेतना समझे कह दें, ताकि कोई तरह का मन में मैल न रहे, अब हुआ का कि हम ठहरे महिला, जब बोलने लगे तो इतना बोल दिए, कि सोचे अब पोस्ट से जाबर टिप्पणी का ठीक लागी....???? ता काहे नहीं पोस्टवे बना देवल जाय, एक बात और इ चक्कर में हम गाना भी तो नहीं रिकॉर्ड किये ना...
तो इ हम धर रहे हैं हमरा पक्ष....

रचना जी, हमारे सुर अलग हैं, आप जो कह रही हैं मैं नहीं समझ रही हूँ, मैं जो कह रही हूँ आप नहीं समझ रही हैं...
अच्छा किया आपने 'नारी' से मेरी 'सदयस्ता' निरस्त कर दी ..क्यूंकि जब हमारे विचार एक नहीं हैं तो बात एक जैसी कैसे हो सकती है.....
लेकिन शिष्टाचार का तकाजा है कि जिस तरह प्रेम से आपने मुझे नारी के साथ जुड़ने के लिए आमंत्रित किया था उसी तरह मेरी सदस्यता समाप्त करने की बात भी ईमेल से बता देती तो थोडा professional लगता...
लेकिन कोई बात नही ..मैं इसे अन्यथा नहीं ले रही हूँ....
आपकी टिप्पणी को कई बार पढ़ा है और सच पूछिए तो बात मुझे समझ नहीं आ रही है.....
आपने कहा कि नारी को शरीर की परिभाषा में न बांधा जाए, शरीर को भूलना होगा, नर-नारी में जो भेद है उसका मुख्य धरातल ही शरीर है, उसे कैसे भूल सकती हैं...???
हाँ ये कह सकती हैं, कि शरीर के अलावा हम सभी बातों में पुरुषों से सामान हैं, बल्कि कुछ बातों में हम पुरुषों से बेहतर हैं...जैसे सहनशक्ति, धीरज, intution इत्यादि...
नारी अधिकार की बात मैं भी करती हूँ और आप भी फर्क सिर्फ इतना है, मैं अधिकार के साथ-साथ कर्तव्य की भी बात करती हूँ, इसका कारण शायद यह हो सकता है कि मैं अधिकार से पहले कर्तव्य को स्थान देती हूँ, आपने कपड़े के चयन जैसी बात को लेकर एक मुद्दा बनाया, जो मुझे बहुत ही बचकाना महसूस हुआ, साड़ी पहनना, ऐसा बताया गया है नारी ब्लॉग पर जैसे कोई सजा है, साड़ी तो वैसे भी अब लुप्तप्राय है........
महिलाओं के उत्थान की बात करना और इसके लिए सतत प्रयत्न करना बहुत अच्छी बात है....इसमें हर तबके की महिलाओं के परेशानियों का समन्वय होना चाहिए.....
कपड़ों का चयन : उच्च वर्ग की महिला के लिए एक तरह की समस्या होगी.....माध्यम वर्ग की महिला के लिए दूसरी किस्म की समस्या होगी और इक गरीब महिला जिसे दो जून कि रोटी नसीब नहीं होती उसके लिए क्या साडी और क्या पैंट....??

कुछ मुद्दे हो सकते हैं...:

वैचारिक स्वतंत्रता का....
आत्मनिर्भरता का....
शिक्षा का.....
नारी प्रताड़ना उन्मूलन का...
स्वयं- सुरक्षा का
दहेज़ विरोधी का
कुपोषण का
समान वेतन का
सामान रोजगार का
promotion में समानता का
नौकरी में maternity leave में बढ़ोत्तरी हो
maternity लीव के लिए बच्चों की संख्या न देखी जाए, हर बच्चे के जन्म में छुट्टी मिले...
इतने सारे मुद्दे हैं कि लिस्ट हमेशा छोटी हो जायेगी, न कि कपड़ों के चुनाव में अपना समय नष्ट करें, कितनी अजीब बात है, इतने सशक्त माध्यम का उपयोग ऐसी छोटी चीज़ के लिए किया जा रहा है, क्या हुआ अगर साडी पहन कर रसोई में, गर्मी में ९ लोगों के लिए खाना बना लिया तो, अगर वही महिला अच्छी शिक्षा ले ले तो खाना बनाने की ज़रुरत ही नहीं होगी, खाना बनाने वाली रख सकती है.......
अपनी काबिलियत का लोहा मनवा ले, तो किसकी मजाल कि कोई उसे रोके, कि वो क्या पहनेगी, कपड़े भी उसके होंगे और चुनाव भी, वैसे भी महानगरों में तो, एकल परिवार की इतनी परंपरा है, कि सभी औरतें अपने ही हिसाब से कपड़े पहनती हैं, हाँ जब कभी सास-ससुर मिलने आते हैं तब दो-चार दिनों के लिए हाफ पैंट से साड़ी या सूट पहनती हैं....
यह भी कहा आपने, कि कोई नर्स अपना स्कर्ट पहन कर या डॉक्टर अपना कोट पहन कर वही अनुभव करती है जो मैं अपना आँचल सर पर रख कर महसूस करती हूँ, तो यही कहूँगी आप मेरी बात नहीं समझ पायी....
मैं सिनिअर सॉफ्टवेर इंजिनियर/प्रोजेक्ट मेनेजर हूँ, माना कि मेरा uniform नहीं है, लेकिन मैं मीटिंग्स में अंग्रेजी सूट पहन कर जाती हूँ (क्यूंकि मीटिंग्स में clients के सामने हमें यहाँ के हिसाब से ही रहना होता है) उस वक्त कि भावना और मंदिर में साड़ी पहनने की भावना में कोई तुलना नहीं है, मैं तो उस भावना की बात कर रही थी, जब वही नर्स या डाक्टर मंदिर जाती है, इसलिए आपका इस तरह तुलना करना कोई मायने नहीं रखता है.....
आपको एक बात और बतानी है...कि यहाँ ऑफिस में ड्रेस कोड हैं, लेकिन मैंने अपनी साड़ी के लिए challenge कर दिया और मेरी साड़ी इन्हें स्वीकार करनी पड़ी, इसलिए गर्मी में साड़ी पहन कर ही, ऑफिस जाना होता है, गर्मी का अर्थ है ...जुलाई...में..

वैसे भी रचना जी समय बदल गया है, अब हमें और आपको कोई क्या रोकेगा, हम आप तो अपनी मर्जी से अपना जीवन जीते हैं, और जहाँ तक नयी पीढ़ी का सवाल है, वो ज्यादा उन्मुक्त है.......
आपकी टिप्पणी में बलात्कार, जैसे हादसे का भी जिक्र है...यह सच है, ऐसे हादसों के ज़ख्म पूरी उम्र रह जाते हैं, और इस नरक को दुनिया में, सिर्फ और सिर्फ बलात्कार की शिकार नारी ही झेलती है, मैं आपकी बात की इस पीड़ा से पूर्णतः सहमत हूँ, लेकिन फिर भी यही कहूँगी, कपड़ों के चुनाव का अधिकार मिलना इस समस्या का समाधान नहीं है, न ही बराबरी का अधिकार मिल जाने में है, इसका समाधान इसमें भी तुरंत नही है कि हम पुरुषों को बदल जाने की अपील करें, पुरुष वर्ग बदल जाए, इससे अच्छा और क्या हो सकता है, लेकिन वो बदलते हैं या नहीं ये उन पर निर्भर है, बदलेंगे भी तो कब बदलेंगे, और कितना बदलेंगे नहीं मालूम इसलिए बेहतर है, महिलाएं ही इसका समाधान ढूँढें, ऐसी घटनाओं के प्रति बचपन से, लड़कियों को सचेत रहना बताना होगा...माएँ ये काम घर पर अपनी बेटियों से, बात-चीत कर के कर सकती हैं, अपने बचाव के कुछ गुर सीख लें, जहाँ तक हो सके उत्तेजित करने वाले, वस्त्र न पहनें, कहीं भी आना जाना करें तो जांच-पड़ताल कर लें इत्यादि, बहुत सारी बातों का ख्याल रख कर इस रिस्क को कम किया जा सकता है, इस तरह की जानकारी आप अपने ब्लॉग पर भी दे सकती है, इस पर एक अच्छी चर्चा की जा सकती है, और पुरुषों से भी स्त्री-सुरक्षा पर विचार लिए जा सकते हैं....और सबसे बड़ी बात, ईश्वर न करे किसी के साथ भी ऐसा हो, लेकिन अगर ऐसा हो भी जाता है...तो स्वयं के अन्दर हीन भावना हरगिज भी आने ना दें, हमेशा यह ख्याल रखें कि किसी भी दुर्घटना की तरह यह भी एक दुर्घटना है, जिस तरह,  हाथ या पांव टूट जाये तो, कुछ दिनों के बाद उसे ठीक हो ही जाना होता है, इसे भी एक घाव की तरह ठीक हो ही जाना चाहिए, और इसके लिए घरवालों से भी सहयोग की अपेक्षा है, आपका ब्लॉग भी ऐसी बलात्कार पीड़ित महिलाओं को, आत्मबल स्थापित करवाने जैसी कोई सेवा प्रदान कर सकता है.....
रचना जी, आपका सशक्त ब्लॉग इन सब मुद्दों पर बहुत कुछ कर सकता है, ज़रुरत है बस ज़रा सा दृष्टिकोण बदलने की, आपको बहुत सी गुणी, तेजस्विनी महिलाओं का साथ है, बस अब कुछ कर ही डालिए, जिससे कहीं कुछ तो बदल जाए, मेरी शुभकामना आपके साथ है....
सस्नेह...'अदा'

अगर मेरी सोच शरीर से ऊपर उठ जाए तो मैं बुद्ध न बन जाऊं...!!!


कल मैंने खुद से काफी जद्दो-जहद की कि इस बात को लिखूं या न लिखूं......क्यूंकि मामला शरीर का है....और मैं इंसान हूँ...अगर मेरी सोच शरीर से ऊपर उठ जाए तो मैं बुद्ध न बन जाऊं...!!!
खैर अभी मेरी सोच उतनी व्यापक नहीं हुई है......इसलिए इस घटना का ज़िक्र कर ही दे रही हूँ.....बात है बहुत ही छोटी सी.....लेकिन सोचने वाली है.....बस..

इस रविवार मैं सपरिवार मंदिर गयी थी ....यहाँ ओट्टावा में बहुत सुन्दर हिन्दू मंदिर है....अच्छा लगता है अपने भारतीय परिधान में अपने परिवार के साथ मंदिर जाना.....हालाँकि मन्दिर में भी अब मन्दिर सा माहौल नही होता ....औरतें मंदिर में साडी या सलवार कमीज पहनने के बावजूद सर पर पल्लू नहीं रखती हैं.....शायद यह प्रगति का ही द्योतक है.....मुझे इसके विषय में कुछ कहना नहीं है यह उनकी अपनी इच्छा है.....हाँ मुझे सर पर पल्लू रखना अच्छा लगता है...और मैं हमेशा रखती हूँ...बचपन से माँ को यही करते देखा....अब कहाँ छोड़ पायेंगे...अब इससे भगवान् जी को कितना फर्क पड़ता है....मुझे नहीं पता.....और मुझे लोग महा पिछड़ी भी समझते होंगे....उससे भी मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता....लेकिन मंदिर में सर पर पल्लू रखने से मेरे मन को फर्क पड़ता है......शायद यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो.....पल्लू सर पर रखते ही मन में अपार श्रद्धा का भाव स्वयं ही आजाता है.....और मन संयंत हो जाता है.....फिर से कहती हूँ शायद यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो.....हाँ अगर मैं देश की प्रधानमंत्री होती और बराक ओबामा से मिलने जाती तो साडी ही पहनती और सर पर पल्लू बिलकुल नहीं रखती.....लेकिन मेरे ससुर और जेठ के सामने रखूंगी ही रखूंगी....

हाँ तो बात मैं कर रही थी मेरे सपरिवार मंदिर जाने की....पूजा अर्चना के बाद ...नीचे हॉल में जाकर प्रसाद के रूप में ......पूरा भोजन हर रविवार को सभी भक्तगण करते हैं......सो हम सभी नीचे आ गए और कतार में खड़े हो भोजन ले लिया..... और पहले से बिछाई हुई चादर की पंक्तियों में बैठते गए ज़मीन पर....
मंदिर हो या गुरुद्वारा पता नहीं क्यूँ इन स्थानों का भोजन वैसे भी विशेष रूप से स्वादिष्ट लगता है अब इसके पीछे कारण क्या है...मालूम नहीं....शायद आस्था का अपना एक स्वाद होता होगा जो इसमें रच-बस जाता है.....
खैर, हम सभी आराम से बातें करते हुए खा रहे थे...हमारी पंक्ति के सामने....कुछ खाली स्थान छोड़ कर एक और पंक्ति थी जिनमें कुछ नवयुवतियां बैठी थी...उनकी पीठ हमारी ओर थी.....लगभग सबने जींस पहना हुआ था.....आज कल के चलन वाला...जिसकी आसनी बहुत छोटी होती है.......आज कल ये फैशन में है बहुत........इस तरह के पैट्स की एक बड़ी समस्या है कि ज़मीन पर बैठ कर खाने पर पैंट काफी नीचे खिसक ही जाती है.....और ...पैंट कोई भी कमर के ऊपर या नाभि के ऊपर चाह कर भी नहीं पहन सकता .....ऐसी जींस जब कोई पहन कर बैठे तो वो कितनी नीचे खिसकती है इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है....उस युवती ने भी वैसा ही जींस पहना हुआ था.......ज़मीन पर बैठने से पीछे से वो जींस काफी नीचे खिसक गयी थी.....इसलिए पीछे से उसके शरीर का बहुत ही निजी हिस्सा साफ़ साफ़ दीखाई पड़ रहा था.....मेरी बेटी के चहरे पर हवाई उडती देख मैंने उसकी नज़र का पीछा किया ......तो आसमान से गिर गयी.......मेरी नज़र उस लड़की से हट ही नहीं पा रही थी...मेरे साथ बैठी मेरी सहेलियां...मेरे बच्चे सभी बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे.....मेरे पति तो उठ कर ही चले गए.......हम उससे कुछ कहते भी घबडा रहे थे ...क्या पता वो कह दे ......So what !! This is my body..and this is my choice...who the hell are you ??? बहुतों की नज़र उस पर थी ...कुछ उसे दया भाव से देख रहे थे....कुछ उसे देख कर शर्मिंदा थे और शायद कुछ अपना मनोरंजन भी कर रहे होंगे ....लेकिन वहां उपस्थित ज्यादातर आँखें शर्मसार थी....आखीर मुझसे नहीं रहा गया...मैं उठ कर उसके पास गयी और उसे उसके अंगप्रदर्शन का व्योरा दिया.....मेरी किस्मत अच्छी थी उसने इसे मान लिया और....जल्दी से उठ खड़ी हुई....वर्ना अपनी पसंद का तमाचा वो मेरे मुंह पर मार सकती थी और फिर मैं बेचारी क्या करती......बोलिए !!!

कल से मैं ये भी सोचने लगी कि अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या हम सब इतने असहज होते .....???? हाँ... असहज होते जरूर लेकिन शायद इतने नहीं.....मुझे शर्म कि जगह गुस्सा आता....लेकिन ऐसा क्यूँ हुआ कि अंग उस युवती ने उधाड़े और नग्न मैंने महसूस किया.....???
अब कोई यह कह सकता है की उस शरीर को आप शरीर क्यूँ सोच रही हैं ....आप इस सोच से ऊपर उठिए.....तो भाई......उससे ऊपर कैसा उठा जाता है ये भी तो कोई बताये.....हम ठहरे एक साधारण स्त्री....स्त्रीसुलभ सभी बातें बहुत पसंद करते हैं....और इनको कभी बेडी नहीं समझा... ये मेरे हथियार हैं .....फिर चाहे वो आँचल हो या पायल.....!!!

'अदा'.....वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें ...



फिल्म : अभिलाषा
संगीतकार : राहुल देव बर्मन.
गीतकार : मजरूह सुल्तानपुरी
आवाज़ : लता

लेकिन यहाँ ...स्वप्न मंजूषा 'अदा'

वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे
वादियाँ मेरा दामन ...

जब हँसेगी कली रंग वाली कोई 2
और झुक जायेगी तुमपे डाली कोई
सर झुकाए हुए तुम मुझे पाओगे
वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे
वादियाँ मेरा दामन ...

चल रहे जहाँ इस नज़र से परे २
वो डगर तो गुज़रती है दिल से मेरे
डगमगाते हुए तुम यही आओगे
वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे
वादियाँ मेरा दामन ...


Tuesday, November 24, 2009

आँचल और घूंघट


आज कई पोस्ट पढ़ी जिनमें आंचल से लेकर पायल तक की बात देखी.....
पढ़ कर बड़ा ही अजीब लगा की मेरे सर पर आँचल हो या न हो या यह तो मेरी ही मर्ज़ी पर है...भला इस पर किसी और का क्या इख्तियार....???
और अगर कोई इस बात को तूल देता है की आपको अपने सर पर आँचल रखना ही होगा तो वो या तो धरम स्थल होगा या फिर कोई सिरफिरा.....
अब इस तरह की बात हमारी ही पीढ़ी थोपेगे अगली पीढ़ी पर....क्यूंकि हमसे पिछली पीढ़ी या तो है ही नहीं और अगर है भी तो इस काबिल नहीं की वो कुछ कह सके....
इससे पहले की मैं बात करूँ मैं अपनी शैक्षणिक योग्यता और अपनी पहचान बता दूँ....
मैं कनाडियन गवर्मेंट में काम करती हूँ और प्रोजेक्ट मेनेजर हूँ......शिक्षा M.Sc (Zoology) , MCA, B.Ed है... मैंने अपनी ज्यादातर पढाई शादी के बाद की...और मुझे किसी ने नहीं रोका....मैंने अपने पुरुषार्थ से कनाडा आने का निश्चय किया और नितांत अकेली आई हूँ....मुझे किसी ने नहीं रोका..सबने मेरा अनुसरण ही किया......
आज की नारी को रोक पाना असंभव है....अगर वो सही रास्ते पर है तो.....जाहिर सी बात है...अपनी व्यक्तिगत योग्यता भी मायने रखती है....किसी भी तरह के निर्णय के लिए.....
बचपन में जब मैं दादा-दादी के घर जाती और कोई कुछ बेचने आता तो दादा जी उससे चीज़ें लेकर अन्दर भेजा करते थे...दादी के approoval के लिए अगर दादी ने हाँ कहा तो ही वो चीज़ खरीदी जाती थी वर्ना नहीं......सबको लगता था की दादा जी की चलती है लेकिन असल में पूरे घर का हैंडल दादी के ही हाथ में था.....
फिर देखा माँ को ..मेरी माँ तो खैर क्लास वन ऑफिसर थी...३ जिला की विद्यालय निरीक्षिका थी.....अब अवकाश प्राप्त कर घर पर हैं........इसलिए हर निर्णय वो खुद ही करती थी/हैं .....लेकिन जब भी मेरे दादा जी आते थे वो सर पर आँचल ज़रूर रखती थी...इसलिए नहीं कि वो बाध्य थी ...बल्कि इसलिए कि यह एक तरीका है आदर जताने का....अब कोई इसे उनकी कमजोरी समझे तो यह उस व्यक्ति सोच की कमी है...
सर पर आँचल रखना मेरे विचार से प्रगति में बाधा का द्योतक या हमारी बेड़ियाँ नहीं दर्शाता है.......यह बड़ों को सम्मान देना बताता है..और इसे कोई भी अपनी प्रगति में बाधा न समझे....
बाधा है घूंघट या पर्दा .....लेकिन अब पर्दा कहाँ है...मैंने तो गाँव में भी पर्दा का जोर-शोर से बहिष्कार देखा है....मेरे ही घर में रांची झारखण्ड में...मेरी चाचियाँ पहले पर्दा करती थी अब नहीं ...अब वो बाकायदा घर के निर्णयों में भी अपना मंतव्य देती हैं....अब तो गाँव में भी शर्ट-पैंट पहनती हैं लडकियां.....लडकियां अब अपनी पहचान खूब जानती हैं...और पुरुष भी अब महिलाओं का सम्मान करते हैं......
मुझे याद हैं मेरे पिता जी कभी भी हमें गोद में नहीं उठाते थे...लेकिन मेरे पति हमेशा बच्चो को पीठ पर बाँध कर चलते थे...मेरे पिता जी ने कभी माँ का जूठा नहीं खाया...लेकिन मेरे पति खाते हैं...यह सब बदलाव ही तो है...
दुनिया का कोई भी रिश्ता....आपसी समझौते पर ही होता है....और शादी तो सिर्फ और सिर्फ समझौता ही रह जाता है.....हम सभी अपने अहम् को किनारे रख देते हैं इसलिए नहीं कि हम कमजोर हैं ...बल्कि इस लिए कि कई और जीवन हमसे जुड़े होते हैं.....जिसे हम संतान कहते हैं....अपने बच्चो के लिए अगर हम थोडा सा त्याग करते हैं तो क्या यह अनुचित है...??? और यह त्याग सिर्फ माँ नहीं करती पिता भी करते हैं.....उनके त्याग को कोई अहमियत नहीं देना सर्वथा अनुचित है...वो भी सारी रात जागते हैं....वो भी बच्चों के भविष्य के लिए दिन-रात एक कर देते हैं....
हर वक्त अपने अधिकार का डंडा लेकर खड़ा रहना ....जीवन से मिठास ले जाता है....पत्नी के अधिकार और कर्तव्य को रहने दीजिये ...लेकिन एक माँ का कर्तव्य एक प्रगतिशील नारी बन कर भी हम पूरा कर सकते हैं और ...आप में से हर एक कर रही है....मेरे हिसाब से जीवन घूम फिर कर बच्चो पर ही आ जाता है....और तब हम सिर्फ 'माँ' बन जाते हैं 'नारी' नहीं....

Monday, November 23, 2009

पुकारता चला हूँ मैं.......भरी दुनिया में आख़िर दिल को ..




चित्रपट : मेरे सनम
संगीतकार : ओ. पी. नय्यर
गीतकार : मजरूह सुलतान पुरी
गायक : रफ़ी

इस ब्लॉग पर आवाज़ ......श्री संतोष शैल की है

पुकारता चला हूँ मैं
गली गली बहार की
बस एक छाँव ज़ुल्फ़ की
बस इक निगाह प्यार की
पुकारता चला हूँ मैं

ये दिल्लगी ये शोखियाँ सलाम की
यहीं तो बात हो रही है काम की
कोई तो मुड़ के देख लेगा इस तरफ़
कोई नज़र तो होगी मेरे नाम की
पुकारता चला हूँ मैं

सुनी मेरी सदा तो किस यक़ीन से
घटा उतर के आ गयी ज़मीन पे
रही यही लगन तो ऐ दिल\-ए\-जवाँ
असर भी हो रहेगा इक हसीन पे
पुकारता चला हूँ मैं

दोनों में से किसी भी एक प्लेयर सुन लें......



फिल्म : दो बदन
गीतकार : शकील बदायूँनी
संगीतकार : रवि
गायक : रफ़ी
यहाँ आवाज़ ..स्वप्न मंजूषा 'अदा' की है ...

यह एक कठिन ग़ज़ल है....सुर के हिसाब से नहीं......scale के हिसाब से....
रफ़ी साहब की pitch पर गाने में पुरुषों को ही मुश्किल होती है....फिर भी मैंने कोशिश की हैं....
है तो आश्चर्य की बात लेकिन संगीत में गायिकाओं का scale पुरुष गायकों से नीचे होता है....
इसी लिए महिलाओं को पुरुषों के गाने गाने में कठिनाई होती है....
मैं सफाई नहीं दे रही हूँ...बस एक जानकारी दे रही हूँ.....
आप सब से अनुरोध है कि आप इस बार सिर्फ सुन कर मत जाइएगा.....बताइयेगा....जो भी कमी है.....उसके बारे में....

भरी दुनिया में आख़िर दिल को समझाने कहाँ जाएं
मुहब्बत हो गई जिनको वो दीवाने कहाँ जाएँ

लगे हैं शम्मा पर पहरे ज़माने की निगाहों के
जिन्हें जलने की हसरत है वो परवाने कहाँ जाएँ

सुनाना भी जिन्हें मुश्किल छुपाना भी जिन्हें मुश्किल
ज़रा तू ही बता ऐ दिल वो अफ़साने कहाँ जाएँ

नज़र में उलझाने दिल में है आलम बेकरारी का
समझ में कुछ नहीं आता वो तूफानें कहाँ जाएँ

दोनों में से किसी भी एक प्लेयर सुन लें......

Saturday, November 21, 2009

'अदा'.....तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है....



फिल्म : चिराग
संगीतकार : मदन मोहन
गीतकार : मजरूह सुल्तानपुरी
आवाज़ : लता

आवाज़ इस पोस्ट पर....स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
ये उठें सुबह चले, ये झुकें शाम ढले
मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले
तेरी आँखों के सिवा ...

ये हों कहीं इनका साया मेरे दिल से जाता नहीं
इनके सिवा अब तो कुछ भी नज़र मुझको आता नहीं
ये उठें सुबह चले ...

ठोकर जहाँ मैने खाई इन्होंने पुकारा मुझे
ये हमसफ़र हैं तो काफ़ी है इनका सहारा मुझे
ये उठें सुबह चले ...

दोनों प्लेयेर्स में से किसी में भी सुने लें...


पंख मेरे झड़ रहे हैं ....


आज कोई गाना नहीं है बजाने को...रात रेकॉर्डिंग ही नहीं कर पाए......
लेकिन कल बहुत ही सुन्दर सा गाना होगा आप लोगों की नज़र.....पक्का !!
फिलहाल ये कविता....दोबारा छाप रहे हैं हम.....

हम खुद से बिछड़ रहे हैं
हालात बिगड़ रहे हैं

अब कहाँ उड़ पायेंगे
पंख मेरे झड़ रहे हैं

तूफाँ कुछ अजीब आया
हिम्मत के पेड़ उखड़ रहे हैं

महफूज़ मकानों में बसे थे
वो मकाँ अब उजड़ रहे हैं

हमसफ़र साथ थे कई
पर आज बिछड़ रहे हैं

आईना है या हम हैं 'अदा'
अक्स क्यूँ बिगड़ रहे हैं ??

Friday, November 20, 2009

'अदा' गाये.... तुम्हीं मेरे मन्दिर.....हे मैंने क़सम ली....


चित्रपट : खानदान
संगीतकार : रवि
गीतकार: राजिंदर किशन
गायिका : लता मंगेशकर

आवाज़ इस पोस्ट पर....स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'

तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो
कोई मेरी आँखों से देखे तो समझे, कि तुम मेरे क्या हो

जिधर देखती हूँ उधर तुम ही तुम हो
न जाने मगर किन खयालो में गुम हो
मुझे देखकर तुम ज़रा मुस्कुरा दो
नहीं तो मैं समझूंगी, मुझसे खफा हो
तुम्हीं मेरे मंदिर...

तुम्हीं मेरे माथे की बिंदिया की झील-मिल
तुम्हीं मेरे हाथों के गजरो की मंजिल
मैं हूँ एक छोटी-सी माटी की गुड़िया
तुम्हीं प्राण मेरे, तुम्ही आत्मा हो
तुम्हीं मेरे मंदिर...

बहुत रात बीती चलो मैं सुला दूं
पवन छेड़े सरगम मैं लोरी सुना दूं
तुम्हें देखकर ये ख़याल आ रहा है
के जैसे फ़रिश्ता कोई सो रहा हो
तुम्हीं मेरे मंदिर...

दोनों प्लायेर्स में से किसी में भी सुनिए ..


तुम्हीं मेरे मन्दिर.....


चित्रपट : तेरे मेरे सपने
संगीतकार : सचिन देव बर्मन
गीतकार : नीरज
गायक : लता, किशोर कुमार

आवाज़ इस पोस्ट पर......संतोष शैल और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'

कि: हे मैं ने क़सम ली
ल: ली
कि: हे तूने क़सम ली
ल: ली
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

कि: साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनी गंधा
प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा
ल: hm hm साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनी गंधा
प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा
नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
कि: ली
ल: हे तूने क़सम ली
कि: ली
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

ल: पा के कभी, खोया तुझे, खो के कभी पाया
जनम जनम, तेरे लिये, बदली हमने काया
कि: पा के कभी, खोया तुझे, खो के कभी पाया
जनम जनम, तेरे लिये, बदली हमने काया
नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
ल: ली
कि: हे तूने क़सम ली
ल: ली
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

कि: एक तन है, एक मन है, एक प्राण अपने
एक रंग, एक रूप, तेरे मेरे सपने
ल: एक तन है, एक मन है, एक प्रण अपने
एक रंग, एक रूप, तेरे मेरे सपने
नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
कि: ली
ल: हे तूने क़सम ली
कि: ली
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

दोनों प्लायेर्स में से किसी में भी सुनिए ..


हे मैंने क़सम ली....

Thursday, November 19, 2009

इतना तो याद है मुझे के उनसे मुलाक़ात हुई



आज का गाना है तो दोगाना लेकिन कोई साथ गाने वाला नहीं मिला बहुत इंतज़ार किया...फिर सोचा क्या हर्ज़ है अकेले ही try मारते हैं....
सुन लीजिये न पसंद आये तो बता दीजियेगा...हम बुरा नहीं मानेंगे.....

चित्रपट :महबूब की मेहँदी
संगीतकार :लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल
गीतकार :आनंद बक्षी
गायक :लता, रफ़ी

और यहाँ आवाज़ है : स्वप्न मंजूषा 'अदा' की

इतना तो याद है मुझे, ओ, इतना तो याद है मुझे, हाय,
इतना तो याद है मुझे के उनसे मुलाक़ात हुई
बाद में जाने क्या हुआ, ना जाने क्या बात हुई

सारे वफ़ा के कर्ज़ अपने चुकाके
किसी से दिल लगाके चला आया
नज़रें मिलाके, नीँद अपनी गँवाके
कसक दिल में बसाके चला आया
दिन तो गुज़र जायेगा, क्या होगा जब रात हुई
इतना तो याद है मुझे ...

मारे हया के, मैं तो आँखें झुकाके
ज़रा दामन बचाके चली आयी
पर्दा हटाके उनकी बातों में आके
उन्हें सूरत दिखाके चली आयी
किस से शिक़ायत करूँ, शरारत मेरे साथ हुई
इतना तो याद है मुझे ...

थी इक कहानी पहले ये ज़िंदगानी
तुम्हें देखा तो जीना मुझे आया
दिल्बर\-ओ\-जानी, शर्म से पानी पानी
हुई मैं बस पसीना मुझे आया
ऐसे मैं भीग गयी जैसे के बरसात हुई
इतना तो याद है मुझे

दोनों प्लायेर्स में से किसी में भी सुनिए ..

Wednesday, November 18, 2009

पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे ...

चलिए मुश्किल से ही सही कुछ आज लिख पायी हूँ....ये चार शेर आपलोगों की नज़र ......

खिल्ली तो न उड़ाओ मेरे इश्क के अफ़साने की
बस यही आदत रही है इस कम-ज़र्फ़ ज़माने की

आज अपनी तकदीर लेकर हम बैठ गए अंजुरी में
चाह बहुत थी तुमको अपनी किस्मत दिखाने की

दामन सबसे छुड़ा कर सफर में हम चल पड़े
जाने क्यूँ पीछे पड़ी है राख मेरे आशियाने की

अभी तलक उम्मीद की परी लौट कर नही आई
कोशिश तो किया था रुख से सलवटें मिटाने की


अरे कहाँ जा रहे हैं....... एक गाना भी सुनाने का इरादा है.... हालांकि मेरे गाने में थोड़ी कमी रह गयी है....वैसी नहीं हुई जैसी होनी चाहिए....मैं definetely इससे बेहतर कर सकती हूँ .....और आगे से कोशिश भी करुँगी ...,लेकिन कोई बात नहीं ये गाना भी मैंने पहली बार गया....वो भी रात के १२ बजे ....तो चलेगा....और मुझे मालूम है आप लोग माफ़ करने के लिए बहुत बड़ा दिल रखते हैं.....
एक बात की और गुजारिश करनी थी अगर पसंद आ जाए तो कहते हैं ब्लॉग वाणी पर चटका लगाने से और भी अच्छे गाने सुनने को मिलते हैं हा हा हा हा..:):)



चित्रपट : साहिब बीवी और ग़ुलाम
संगीतकार : हेमंत कुमार
गीतकार : शकील बदायूँनी
गायक : गीता दत्त
और यहाँ पर आवाज़ हमारी है जी ...स्वप्न मंजूषा 'अदा'

(पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे
कि मैं तन मन की सुध बुध गवाँ बैठी ) \- २
हर आहट पे समझी वो आय गयो रे
झट घूँघट में मुखड़ा छुपा बैठी
पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे ...

(मोरे अंगना में जब पुरवय्या चली
मोरे द्वारे की खुल गई किवाड़ियां ) \- २
ओ दैया! द्वारे की खुल गई किवाड़ियां
मैने जाना कि आ गये सांवरिया मोरे \- २
झट फूलन की सेजिया पे जा बैठी
पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे ...

(मैने सेंदूर से माँग अपनी भरी
रूप सैयाँ के कारण सजाया ) \- २
ओ मैने सैयाँ के कारण सजाया
इस दर से पी की नज़र न लगे \- २
झट नैनन में कजरा लगा बैठी
पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे ...

Tuesday, November 17, 2009

दीवाना हुआ बादल.....


मालूम नहीं क्यूँ आज भी बात कुछ बनी नहीं...मेरी ग़ज़ल अधूरी ही है....ऐसा मेरे साथ शायद पहली बार हो रहा है कि कुछ लिखना चाह रही हूँ नहीं लिख पा रहू हूँ....
लेकिन आपलोगों के समक्ष कुछ नया प्रस्तुत करने कि आदत सी हो गयी है प्रतिदिन ....तो मैंने 'उनसे' से ही जिद्द कर दिया गाने को .....मेरी जिद्द के आगे झुकना ही पड़ा और गाना ही पड़ा....

अब बताइयेगा कैसा रहा यह गीत.... तो हाज़िर है आपकी नज़र......दीवाना हुआ बादल......यकीन है मुझे ......आप पसंद करेंगे.....

चित्रपट : कश्मीर की कली
संगीतकार : ओ. पी. नय्यर
गीतकार : एस. एच.बिहारी
गायक : रफ़ी,आशा भोसले

आज यहाँ पर गा रहे हैं : संतोष शैल, स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा'

रफ़ी: ओ हो हो, ओ हो हो, आ हा हा
mmmm, ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई
दीवाना हुआ बादल
सावन की घटा छाई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई
दीवाना हुआ बादल

ऐसी तो मेरी तक़दीर न थी
तुमसा जो कोई महबूब मिले
(दिल आज खुशी से पागल है) \- २
(ऐ जानेवफ़ा तुम खूब मिले) \- २
दिल क्यूँ ना बने पागल, क्या तुमने अदा पाई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई
दीवाना हुआ बादल

आशा: जब तुमसे नज़र टकराई सनम
जज़बात का एक तूफ़ान उठा
(तिनके की तरह मैं बह निकली) \- २
(सैलाब मेरे रोके न रुका) \- २
जीवन में मची हलचल
और बजने लगी शहनाई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई
दीवाना हुआ बादल

है आज नये अरमानों से, आबाद मेरी दिल की नगरी
(बरसों से खिंजां का मौसम था) \- २
(वीरान बड़ी दुनिया थी मेरी) \- २
हाथों में तेरा आँचल, आया जो बहार आई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई

आशा: दीवाना हुआ बादल, सावन कि घटा छाई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई
रफ़ी: दीवाना हुआ बादल, सावन की घटा छाई
ये देखके दिल झूमा, ली प्यार ने अंगड़ाई,
दीवाना हुआ बादल

दोनों में से किसी भी प्लेयर पर आप सुन सकते हैं...

Monday, November 16, 2009

'अदा' की आवाज़ में....चन्दा ओ चन्दा, चन्दा ओ चन्दा.....

आज कुछ लिखा था पर बात वैसी नहीं बनी जैसा हम चाहते थे....अब क्या करें रोज-रोज लिखा भी तो नहीं जाता ...लेकिन गाया तो जा ही सकता है...
तो लगे हाथों एक गाना ही सुन लीजिये...
आप सब जानते हैं इस गीत को....
और हाँ बताइयेगा ज़रूर कैसा लगा......:):)

फिल्म : लाखों में एक
आवाज़ : लता मंगेशकर
गीत : आनंद बक्षी
संगीत : राहुल देव बर्मन
लेकिन यहाँ आवाज़ : स्वप्न मंजूषा 'अदा'


चन्दा ओ चन्दा, चन्दा ओ चन्दा
किसने चुराई तेरी मेरी निंदीया
जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना

हंस के मैं तेरा मन बहलाऊं
अपने आँसू मगर किसे मैं दिखाऊँ
मैंने तो गुज़ारा जीवन सारा बेसहारा
हो हो हो हो
जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना
चन्दा ओ चन्दा, चन्दा ओ चन्दा
किसने चुराई तेरी मेरी निंदीया
जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना

तेरी और मेरी एक कहानी
हम दोनों की कदर,किसी ने ना जानी
साथी ये अँधेरा जैसे तेरा,वैसे मेरा
हो हो हो हो
जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना
चन्दा ओ चन्दा, चन्दा ओ चन्दा
किसने चुराई तेरी मेरी निंदीया
जागे सारी रैना, तेरे मेरे नैना


Sunday, November 15, 2009

नफरत के बीज तूने लाखों लगाए


नफरत के बीज तूने लाखों लगाए
अब इनमें ज़हरीले इन्सां उग आए

एटम बम का है जो मसनद बनाये
काहे फ़िर बैठ उसपे दीपक राग गाये ??

रहते हो संदल के घर में जब बाबू
काबू रख शम्मां पर वो आग न लगाए

धर्म कभी प्रान्त कभी भाषा भड़काए
इक मामूली सा मंजर खूनी हो जाए

ऐसा नही हैं हम सिर्फ़ गँवायें पराये
देखा करीब से थे कुछ अपनों के साए

खायी थी तूने जो आज की वो रोटी
आंसुओं में मेरे वो गए थे पकाए

स्विस की तिजोरी में जो सोना धर आए
मत भूलो 'उसने' भी कई लंके ढहाए

Friday, November 13, 2009

रिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का


हमने जिसको शहर समझा जंगल है वो मकानों का
और पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का

मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
रिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का

जगी रात है, रात भर शम्मा भी अब सोने चली
ऐसे में अब फ़िक्र किसे क्या हाल हुआ परवानों का



मन का पाखी उड़ चला दिल है कुछ खोया-खोया
प्रीत का बाजा ढोल बजा औ शोर हुआ अरमानो का

धज्जी-धज्जी है पैरहन आँखों में है खुमारी सी
मजनूँ सी सीरत लेकर क्या होगा तुम दीवानों का

कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
मुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का

Thursday, November 12, 2009

सोचते रहते हैं हम...


ज़िन्दगी कैसे बसर हो सोचते रहते हैं हम
परेशानी कुछ कमतर हो सोचते रहते हैं हम

मीलों बिछी तन्हाई जो करवट लिए हुए है
ख़त्म अब ये सफ़र हो सोचते रहते हैं हम

गुम गया है वो कहीं या उसने भुला दिया है
बस उसको मेरी खबर हो सोचते रहते हैं हम



वफ़ा की देगची में मेरे ख़्वाब उबल रहे हैं
अब यहीं मेरा गुज़र हो सोचते रहते हैं हम

तेरी ऊँचाइयों तक मेरे हाथ कहाँ पहुंचेंगे
बस तुझपर मेरी नज़र हो सोचते रहते हैं हम

मत कर शुरू नई कहानी रहने दे वो वर्क पुराने
तू लौटा अपने घर हो सोचते रहते हैं हम

Wednesday, November 11, 2009

कब से...


बस डर जाते हैं जब वो आते हैं धप से
वाकिफ़ हैं हम हर तूफाँ से कब से

किया वार छुपकर मेरे दोस्तों ने
सब देखा है इस दिल दीवाने ने कब से

अब ये तो बता दो उतारूँ कहाँ मैं
ये काँधे पे रखा जनाज़ा है कब से

न रोने की फुर्सत न हँसने की फितरत
बना दिल ये शोला बताएँ क्या कब से

चुराया है तुमने क्यूँ नज़रें बताओ
तकाजे को उठ गई निगाहें ये कब से

बता कर तो जाते नहीं आओगे तुम
सदी बीती हमको बिठाये हो कब से

Tuesday, November 10, 2009

दिल से.....


है मुझको भी तेरे इश्क की खबर
हम लिखने लगे ये फ़साना दिल से

छपते ही रहे तेरे बयाँ हर सू
अब पढने लगा है ज़माना दिल से

आँखों में पड़े तो थे कोहरे कई
तेरी उँगली से उनको हटाना दिल से

तुम कहते रहे कुछ कही अनकही
और मेरा वो सबकुछ सुन जाना दिल से

मैं ख्वाबों के रेत में धँसती गई
मुझे बाहों में भर कर उठाना दिल से

मुझे मुजस्सिम हकीक़त का तुमने कहा
फिर हमको छुपाकर बसाना दिल से

अब तुझको पहन कर हम इतराते हैं
फिर सामने बिठा कर बतियाना दिल से

कभी तक़रीर में तेरी मेरा हो जिक्र
फिर मेरा वो डरना शर्माना दिल से

अब नए तो नज़र आते हैं हम सबको
पर हैं शख्स वही हम पुराना दिल से

Monday, November 9, 2009

बेतलेहेम से बनारस तक....!!


आस्था और अध्यात्म का शहर 'बनारस'..!!
कहते हैं दुनिया के किसी भी कोने में हम रहें ...मुक्ति 'बनारस' में ही मिलती है....शायद यही वजह है कि ईसा मसीह को भी 'बेतलेहेम से बनारस' आना पड़ा.....मुक्ति के लिए..

ईसा मसीह ने १३ साल से ३० साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है..
इस अन्तराल ईसा मसीह का जीवन कहाँ बीता यह लोगों को मालूम नहीं है..
क्या ईसा मसीह ही सेंट ईसा (Saint Issa) थे और भारत आये थे?
निकोलस नोतोविच (Nicolas Notovitch) एक रूसी अन्वेषक था, उसने कुछ साल भारत में बिताये, बाद में, उन्होने फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीज़स क्राइस्ट' (The unknown life of Jesus Christ) नामक पुस्तक लिखी है।
निकोलस के मुताबिक यह पुस्तक हेमिस बौद्घ आश्रम (Hemis Monastery) में रखी पुस्तक (The life of saint Issa) पर आधारित है।
उस समय हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाक के उस भाग में था जो कि भारत का हिस्सा था। हांलाकि इस समय यह जगह तिब्बत का हिस्सा है।
१३ से १४ वर्ष की उम्र के दरमियान नाज़रेथ के जीज़स आध्यात्म की तलाश में तीर्थ पर निकल गए और आ पहुंचे भारत जहाँ नाजरेथ के जीज़स 'ईसा', धर्मगुरु और इस्रायल के मसीहा या रक्षक बन गए...
ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आये थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था
उन्होंने यहां अपना समय बौद्घ धर्म से प्रेरित होकर इसके बारे में पढ़ने में बिताया, और उसके बाद बौद्घ धर्म की शिक्षा दी।

हिमालय की वादियों में जीज़स को योग की दीक्षा मिली और सर्वोच्च अध्यात्मिक जीवन भी, ......यही उन्हें 'ईशा' नाम भी मिला जिसका अर्थ है, 'मालिक' या स्वामी...हालाँकि ईश्वर के लिए भी इन शब्दों का विस्तृत रूप उपयोग में लाया जाता है ...जैसे कि 'ईश उपनिषद' ......में 'ईश', 'शिव' के लिए भी कहा गया है....

अगले कुछ वर्षों तक हिमालय की वादियाँ जीज़स के लिए दूसरा घर बन गईं ....इस दौरान उन्होंने आज के शहर ऋषिकेश की गुफाओं में आराधना की.....गंगा के तट, हरिद्वार में भी उन्होंने कई वर्ष व्यतीत किये....

फिर ....जीज़स ने बनारस की यात्रा की...... वही 'बनारस' जो भारत के अध्यात्म का ह्रदय है...जो शिव की नगरी और गहन वैदिक अध्ययन का केंद्र है.....यहाँ जीज़स ने स्वयं को सर्वोच्च योग साधना में डूबो दिया..और उपनिषदों जैसे महान ग्रंथों के तत्व-विचार में लीन हो गए....

जीज़स ने पवित्र जगन्नाथ पूरी की यात्रा की, जो उस समय बनारस के बाद शिव की दूसरी नगरी थी...जहाँ उन्होंने गोवर्धन मठ की सदस्यता ग्रहण की और मठ के जीवन को आत्मसात किया ......
यहाँ उन्हें योग औए दर्शनशास्त्र पूर्णरूप से संलग्न मिले.....और अंततोगत्वा सार्वजनिक रूप से वो सनातन ज्ञान का विस्तार करने लगे......

बहुत जल्द ही जीज़स लोगों में लोकप्रिय हो गए ....वो विचारक और उपदेशक के रूप में बहुत सफल रहे...लेकिन कुख्याति ने बहुत जल्द उनको कोपभाजन बना लिया.....इसका मुख्य कारण था ........वो वेदों का ज्ञान हर सतह के लोगों को देने में विश्वास करते थे ...जिनमें निम्न वर्ग के लोग भी आते थे.....जो अन्य मठाधीशों को मंज़ूर नहीं था...फलतः उनकी हत्या की साजिश रची जाने लगी.....

जीज़स को अपनी हत्या की साजिश का भान हो गया था इसलिए उन्होंने जगन्नाथपुरी छोड़ना श्रेयष्कर समझा ...और पुनः हिमालय की ओर रवाना हुए....इस्रायल लौटने से पूर्व उन्होंने बहुत सारा समय.....एक बौद्ध मठ में बिताया.....जहाँ उन्होंने गौतम बुद्ध के निर्वाण पर अध्ययन किया..

पश्चिम कि ओर यात्रा शुरू करने से पहले भारत के गुरुओं ने जीसस को कुछ स्पष्ट निर्देश दिए थे .....जीसस को मालूम थे कि इस्रायल पहुँच कर ........कुछ दिनों में उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है......इसलिए भारत में उनका भला चाहनेवालों गुरुओं ने उनसे करार किया था कि हिमालय से चंगा करने वाला द्रव्य उनको दिया जाएगा और ....यह द्रव्य उनको भेज कर स्पष्ट निर्देश दिया गया था कि जब भी ...ऐसा प्रतीत हो उनकी मृत्यु अब निश्चित है.....कोई भी उनका शिष्य जो बहुत ही विश्वासपात्र हो यह द्रव्य उनके शीश पर डालता रहे.......और अगर आप बाईबल पढें तो क्रूस से उनके पार्थिव शरीर क उतारने के बाद मेरी मग्दलेन ने लगातार तीन दिनों तक इसी द्रव्य को प्रयोग ईसा मसीह के शरीर पर किया तब जब उन्हें 'टूम्ब' में रखा गया था.....और वही से वो तीसरे दिन जी उठे थे ....


ऐसा मानना है कि अपने जीवन के अंत में ईसा मसीह स-शरीर स्वर्ग चले गए थे ...लेकिन संत मैथ्यू और संत जोन, दोनों जो की ईसाई मत के प्रचारक थे, साथ ही प्रत्यक्षदर्शी भी थे, ने कभी भी ऐसी कोई बात बात नहीं कही......क्योंकि उन्हें मालूम था, उनसे अलग होकर ईसा मसीह स्वर्ग नहीं......भारत आये थे....
ईसा मसीह के स्वर्गारोहण कि बात सिर्फ संत मार्क और संत लुके ने ही कही है......जबकि दोनों ही उस समय वहां उपस्थित नहीं थे.......




और सच्ची बात भी यही है कि ......वो भारत ही आये थे...हाँ यह हो सकता है कि उन्होंने अपने योग का प्रयोग किया हो ...ऊपर उठ कर यहाँ तक आने के लिए जो कोई नयी बात नहीं थी.....तब योगी ऐसा किया भी करते थे.......

२ री शताब्दी के लिओन के संत इरेनौस द्वारा भी इस बात की पुष्टि की गई है कि ईसा मसीह ने ३३ वर्ष कि आयु में अपना शरीर नहीं त्यागा था ...उनका कहना है कि ईसा मसीह ने पचास से ऊपर अपनी ज़िन्दगी जी थी दुनिया छोड़ने से पहले......जब कि उनको सलीब पर ३३ साल कि उम्र में टांगा गया था...इसका अर्थ यह होता है कि .....क्रुसिफिक्शन के बाद २० वर्षों तक वो जीवित रहे ...हालाँकि संत इरेनौस कि इस दलील ने कई ईसाई मठाधीशों को बहुत परेशान किया है.....आज भी वेटिकन ने धर्म कि राजनीति का खेल खेलते हुए ......ईसा से सम्बंधित न जाने कितने तथ्यों को छुपाया हुआ है.......
फिर भी मानने वाले मानते हैं की वो अपनी माता और पत्नी 'मेरी मग्द्लेन' के साथ भारत ही आये....बाद में उनकी एक पुत्री भी हुई थी 'सारा' ........कहा जाता है उनकी माता मरियम की कब्र आज भी कश्मीर में है......

और सच्चाई भी यही है कि चाहे वो किसी भी धर्म के हों.........धर्म गुरुओं तक तो अपनी मुक्ति कि लिए 'बनारस' की शरण में आना ही पड़ता है...और कोई रास्ता नहीं है ...!!!

Sunday, November 8, 2009

बाहुबली की बेटी...(अन्तिम)


उसके बाद बहुत दिनों तक सब कुछ सामान्य चलता रहा, कोई उठा-पटक नहीं, हमलोग भी खुश थे, हमने उस गली से जाना ही छोड़ दिया, जय भी खुद को खुश दिखाने कि भरपूर कोशिश करता था , मतलब यह कि जीवन भी शनै - शनै सामान्य होता जा रहा था,

एक शाम हम सभी भाई-बहन बैठ कर अन्ताक्षरी खेल रहे थे, इतने में किसी को गेट के अन्दर आते देख हम सबकी नज़र उधर उठ गयी, एक महाशय चले आरहे थे और कहते जा रहे थे ' अरे इहा से कौन बार-बार मेरा कम्प्लेन करता है , बार-बार डी.सी.ऑफिस से पिटीशन पर पिटीशन आ जाता है, जब वो नज़दीक आये तो मैं पहचान गयी अरे यह ये तो श्री बिक्रमादित्य सिंह जी हैं वो वर्दी में नहीं आये थे, मैंने तुंरत खड़े होकर कहा 'आइये, आइये सिंह जी, इ गलती तो हम ही कर रहे हैं, पहचाने तो नहीं होंगे आप हमको' हम आये तो थे आपके पास लेकिन आप तो कहने लगे कि जगदीश सिंह हमपर गोली चलाकर एकदम ठीक काम किये हैं, श्री बिक्रमादित्य सिंह जी की नज़र हम पर पड़ी फिर हमारे पूरे घर का मुआइना करने लगी , अच्छा आप हिया रहते हैं, मैंने तपाक से कहा 'तो आप का समझे थे हम गेल-बीतल घर से आये हैं,' तब तक पिता जी भी बाहर आ चुके थे, उन्होंने सिंह जी को नमस्कार किया और अपना परिचय दिया , मेरी तरफ इशारा करके सिंह जी ने पुछा नाथ जी इ आपकी कौन हैं, पिताजी ने कहा यह मेरी बेटी है, सिंह जी बोले 'एतना छोटी है ....लेकिन बहुत बोलती है ' मैं कहाँ चुप रहती 'हां इ बात तो है अगर हम बोलते नहीं तो आप दरसन देते का ?' पिता जी ने मुझे बार-बार चुप रहने का इशारा कर रहे थे, बिक्रमादित्य जी के बात करने अंदाज़ तो आज कुछ और ही था, बहुत ही मित्रता दीखते रहे , बहुत ही अच्छे से बात-चीत की सबसे कहने लगे, ऐसा कोई दिन नहीं बिताता है जिस दिन डी.सी. मदन मोहन झा आपके बारे में पूछ ताछ नहीं करते हैं, आपलोगों की सुरक्षा की जिम्मेवारी अब हमपर ही आगई है, हमसब की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, मैंने बिक्रमादित्य जी कहा आप जगदीश सिंह जी कह दीजिये वो उमा की शादी जहाँ मर्जी वहां कर दें , हमलोगों का पूरा सहयोग होगा, बिक्रमादित्य जी ने हर तरह से आत्मीयता दीखाई, हमलोगों को कटहल के पेड़ की देखभाल कैसे करनी चाहिए बताते रहे और जाते वक्त २-४ कटहल भी तोड़ कर ले गए,

खैर, घर का माहौल अब काफी खुशगवार हो गया था, सबके चहरे पर इत्मीनान के भावः दिखने लगे थे, और घर और मोहल्ले में मेरी धाक जम चुकी थी, अब मैं सबकी दीदी बन चुकी थी, अब तो लोग मुझसे अपनी परेशानी भी शेयर करने लगे थे,

डी.सी. श्री मदन मोहन झा जी का भी तबादला हो गया था उसी वर्ष ..लेकिन उनके जाने से पहले.....मिल आई थी उनसे और उनकी पत्नी से ....पिताजी भी साथ गए थे ...धन्यवाद के साथ जब दोनों के पाँव छुए थे मैंने तो उनके आर्शीवाद से भरे हाथ मेरे सर पर उसके बाद हमेशा महसूस किया था....कहा था उन्होंने......नहीं भूल सकता सारी उम्र जिस तरीके से तुमने जगाया था मुझे.....और खबरदार जो इस जूनून को कम होने दिया तुमने...फिर पिताजी से कहा था मास्साब.....ये धन-मिरचाई है.....एक बेटी ऐसी हो जाए तो बेटे की क्या जरूरत है..? मैं सकुचा के रह गयी थी....

फिर खबर मिली उमा की शादी बहुत बड़े घर में ठीक हो गयी है, हमलोगों ने कहा चलो अच्छा हुआ, वो अपने घर खुश हम अपने घर खुश, उसकी शादी में हमारा शामिल होना असंभव था और हमलोग ऐसा कुछ सोच भी नहीं रहे थे, शादी का दिन करीब आता जा रहा था, मैंने आपको पहले ही बताया था हमारे घर से कोई भी अब उस गली से जाता ही नहीं था, इसलिए क्या तैयारी हो रही थी, इसका आँखों देखा हाल नहीं बता पाऊँगी, हाँ जो उड़ती-उड़ती खबर मिलती थी वही हमें पता था, गली के मुहाने पर खड़े होने पर कुछ दीखाई दे सकता था लेकिन हमने ऐसी कोई कोशिश भी नहीं कि , मोहल्ले वाले आते और बता जाते, जय उदास दीखता था, लेकिन कुछ भी कहता नहीं था, मैं पूछती तो बात गोल कर जाता था, घर में सबको उसके मन कि दशा का अनुमान था, लेकिन कोई इस विषय में बात ही नहीं करता था,

वो उमा की शादी का दिन था, सुबह से ही मन हल्का-हल्का लग रहा था, जैसे कोई बहुत बड़ा बोझ धीरे-धीरे उतर रहा हो, घर में हमलोग खुश थे की चलो उमा अपने घर चली जायेगी तो हमलोग अच्छी सी लड़की देख कर जय की भी शादी करा देंगे, और यह सब बीता कल हो जायेगा, मोहल्ले में इतनी बड़ी शादी थी सब लोग जारहे थे, बस हमलोगों को ही न्योता नहीं मिला था,

दोपहर का समय था, आज ही बारात आनी थी उमा के घर में, खाना-वाना खाकर हमलोग आराम कर रहे थे, घर का ग्रिल भी बंद किया हुआ था (जब से यह घटना हुई थी हम लोग ग्रिल बंद ही रखते थे ), अचानक जोर-जोर से कोई ग्रिल पीटने लगा, दीदी.......दीदी..... खोलिए जल्दी......जल्दी कीजिये..... मैं हडबडा कर जागी और भाग कर ग्रिल कि चाभी ढूंढने लगी, चाभी लेकर मैं ग्रिल तक आगई, सामने अलिंदर खड़ा था, मैंने अरे.. क्या हुआ ? क्या बात है ? दीदी....उमा ज़हर खा गयी है, उसको अस्पताल ले जा रहे हैं, नहीं बचेगी दीदी ऐसा ही लग रहा है, बहुत देर से ज़हर खा कर अपने कमरे में थी, साँस तो चल रहा है लेकिन उम्मीद नहीं है, अब क्या होगा दीदी ? मैं तो धम्म से बैठ गयी, मेरी आँखों के सामने उमा का चहरा घूमने लगा, उसकी चीखें उसका हाथ जोड़ना, उसका मेरे घर आना और वापस नहीं जाने कि जिद्द करना सब कुछ, माँ-पिता जी भी उठ कर बाहर आ गए, जय भी ऊपर अपने कमरे में ही था, मैं उससे कुछ बताना नहीं चाह रही थी लेकिन अलिंदर उसके कमरे में पहुँच चुका था और यह ख़बर जय को भी मिल चुकी थी, मैं जय के सामने जाना नहीं चाह रही थी, समझ में नहीं आ रहा थी कि अपना दुःख मैं किस रिश्ते के नाम से प्रकट करूँ, हमलोग सभी एक अजीब से भावः से गुजरने लगे, ना यह कह सकते, ठीक हुआ, ना यह कह सकते बुरा हुआ, ना ही यह कह सकते हमारा क्या जाता है, बस हमलोग अपने-पराये को सोच में झूलते रहे, शाम होते-होते बुरी ख़बर आग कि तरह फ़ैल गयी , उमा के घर से रोने कि आवाजे मेरे घर तक आ रही थी, हमारे घर में भी हम सभी रो रहे थे बस आँसू नहीं बह रहे थे, जय अपने कमरे में ही बंद रहा,

जिंदगी इतने सारे हादसों से गुजर कर फिर एक बार अपने पटरी पर आ गयी, उमा के गुज़रे हुए शायद दो महीने ही हुए होंगे, कि पता चला जगदीश सिंह जी नहीं रहे, रोड में कोई हादसा हो गया, वो बहुत स्पीड से सरिये से भरा ट्रक लेकर जा रहे थे, किसी को बचाने के चक्कर में जोर का ब्रेक लगाया था, ट्रक की रफ़्तार इतनी तेज़ थी कि सारे सरिये ड्राइवर की सीट को छेद कर उनकी बॉडी में घुस गए, उनको गाड़ी से निकलना मुश्किल हो गया था, कहते हैं उनका अंग-भंग करना पड़ा था,

मालती आंटी अकेली रह गयीं थीं उस महल में...वो भी दो वर्ष के बाद नहीं रहीं....कहते हैं उनके देवर विद्या सिंह ने उनको ज़हर दे दिया था.....

और, जय !! , उमा कि मृत्यु के एक वर्ष बाद "ठीक उसी दिन" हमें छोड़ कर चला गया, डाक्टर ने ह्रदयगति रुकने की बात बताई थी, १९ वर्ष कि आयु में हृदयगति का रुकना कुछ अजीब नहीं लगता ?

मेरे बच्चों को पता ही नहीं चला कि उनका छोटू मामू कैसा था.?
पिछले साल जब भारत गयी तो उसी गली में चली गयी.....पावों ने क्या महसूस किया बता नहीं पाऊँगी.....बहुत कुछ बदल गया है वहाँ.....मैं रुकी थी उसी जगह जहाँ वो गेट अब भी है......पर कहाँ ठहर पायी मैं.... उमा की चीखें.....मेरा पीछा करने लगीं और मैं भाग आई ....वहां से !!!

समाप्त

Saturday, November 7, 2009

बाहुबली की बेटी ....(भाग-४)

यह सब कुछ अक्षरश सत्य है, सब कुछ मेरे साथ घटित हुआ है, मैं इस घटना को शब्दों का जामा पहनाने की कोशिश कर रही हूँ,

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आग कि तरह यह खबर पूरे मोहल्ले में फ़ैल चुकी थी, जब तक मैं घर पहुंची मेरे भाई और माँ-पिताजी गली के मुहाने पर आ चुके थे, मेरे भाई भी सिंह जी से भिड़ने के लिए तैयार थे लेकिन मोहल्ले वालों ने उन्हें पकड़ रखा था, सब पुलिस को बुलाने कि बात कर रहे थे लेकिन सबसे पहले मरियम को डाक्टर की जरूरत थी, माँ-पिताजी मुझसे बहुत ज्यादा नाराज़ थे, मैंने उनसे कहा नाराज़ बाद में होना पहले डाक्टर के पास लेकर जाना ज़रूरी है, हम सभी मरियम को लेकर हास्पिटल पहुँच गए, उसके कानों में स्टिच लगेगा ऐसा डाक्टर ने बताया, डाक्टर हमारे जान-पहचान के थे, उन्होंने पुछा ये चोट कैसे आई, मैंने साफ़ साफ़ बता दिया की गोली चलायी गयी थी हमपर, उन्होंने कहा ये तो पुलिस केस है, इसे अगर मैं हाथ लगाऊँ तो मुझे बहुत प्रॉब्लम हो जायेगी, मेरे मिन्नत करने से वो मान गए की मैं स्टिच तो कर दूंगा लेकिन आपको थाने में रिपोर्ट करनी ही होगी, मैंने कहा डाक्टर साहब आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली, मैं थाने में जाने की सोच ही रही थी, मरियम के कानो का स्टिच हो गया, हमलोग घर वापस आ गए, मरियम को ज्यादा चोट नहीं आई थी लेकिन अगर दो-चार सूत भी इधर-उधर होता तो उसे लाश में तब्दील होते वक्त नही लगता...और यह एक संगीन बात थी.., अब तो घर में सभी लोटा-पानी लेकर मेरे पीछे पड़ गए, किसी को भी मेरे सिंह जी के घर जाने का आईडिया पसंद नहीं आया, और जब मैंने कहा कि थाना जाना है कम्प्लेन करने तो माँ-पिता जी कहने लगे क्या फायदा, थाना प्रभारी भी तो उन्ही का आदमी है लेकिन मुझे कम्प्लेन तो करनी ही होगी, दूसरी बात रिकॉर्ड में आना भी ज़रूरी है कल को कुछ भी ऐसा-वैसा हो गया तो कम से कम हमारे पास कुछ तो सबूत होगा, इतना तो समझ में आ ही गया कि मामला बहुत ही संगीन है, इस तरह गोली चल जाना कोई मजाक नहीं है , अब हम लोगों को खुद को बचाना होगा, मुझे थाने में रिपोर्ट करवानी ही होगी, मैंने वापस आकर मोहल्ले के लड़कों से पुछा कि क्या कोई थाने से आया था उन्होंने कहा कि खबर तो कर दिया था लेकिन कोई आया नहीं है

दूसरे दिन मैं मरियम को लेकर थाने पहुँच गयी, उसकी पट्टियाँ बंधी ही थी और उसको बुखार भी था ...., सुबह के लगभग ९:३० बज रहे थे, मैं पहले भी आ सकती थी लेकिन इतना तो पता ही होता है, सरकारी दफ्तर है पता नहीं साहब कब तशरीफ़ लायें, खैर हम पहुँच गए थाने, मैं अपने साथ दोनों पिस्तौल और गोलियां भी ले गयी थी जो हमारे घर सिंह जी छोड़ गए थे, मैंने थाने के अन्दर प्रवेश किया, बहुत ही अजीब लग रहा था कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे थाने जैसी जगह में भी जाना पड़ेगा, मेरे भाई मेरे साथ जाने कि जिद्द कर रहे थे लेकिन मैं उन्हें लेकर जाना नहीं चाहती थी, वैसे भी युवकों को देख कर रही सही सहानुभूति भी ख़तम हो जाती है, फिर चाहे वो बेगुनाह ही क्यों ना हो वो सबको गुनाहगार ही दीखते है, शायद यह हमलोगों कि मानसिकता है, महिला के प्रति लोग थोडा नर्म बर्ताव रखते हैं, मैं यही सोच रही थी किसी भी हाल में मेरे किसी भी भाई का नाम पुलिस के पास नहीं जाना चाहिए क्या भरोसा है पुलिस वालों का, हाँ तो मैं सुबह साढ़े नौ बजे सुखदेव नगर थाना पहुँच गयी, अन्दर गयी तो पुलिस कि वर्दी में फाइलों के बीच एक सिपाही या जो भी रहे होंगे मिले, उन्होंने मुझसे पुछा, हाँ मैडम क्या बात है, मैंने कहा कि मुझे रिपोर्ट लिखानी है एक आदमी के अगेंस्ट, उसने अपनी नोटबुक निकाल ली, हाँ मैडम किसके खिलाफ लिखानी है मैंने कहा "श्री जगदीश सिंह", उसने पुछा कौन जगदीश सिंह, मैंने अपने मोहल्ले का नाम बता दिया, उसने खुली हुई नोटबुक या डायरी जो भी होती बंद कर दी, कहने लगा मैडम जी इसके लिए तो आपको साहब से बात करनी होगी, साहब से क्यों बात करनी होगी आप रिपोर्ट तो लिखिए, मैंने मरियम कि और दिखा कर कहा, देखिये इसे पूरे सर में पट्टी बंधी है, इस पर गोली चलायी है उनलोगों ने, मुझपर भी गोली चलाई है गयी हैं, दो हफ्ते पहले ४ लोग हमारे घर आ गए थे हमें मारने पिस्तौल लेकर, हमारे पास उनकी पिस्तौल भी है, लेकिन फिर कुछ सोच कर मैं चुप हो गयी, वो सब ठीक है मैं आपकी बात समझ रहा हूँ लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ, उसने फिर कहा, अच्छा मुझे एक बात बताइए कि अगर मैं 'जगदीश सिंह' का नाम नहीं लेती तो आप रिपोर्ट दर्ज करते या नहीं ? उसने कुछ भी नहीं कहा, और अब तो वो मुझे बात करने से भी कतराने लगा, मैं समझ गयी अब कुछ नहीं होगा, फिर भी मैंने पुछा कौन साहब जिनसे मुझे मिलना होगा, जी थाना प्रभारी बिक्रमादित्य सिंह, मैंने कहा ठीक है, उनसे ही बात करवा दीजिये, मैडम वो तो हैं नहीं अभी, अच्छा कब तक आयेंगे? पता नहीं मैडम आप वेट कर लीजिये, हमारे पास और चारा भी क्या था, हम बैठे रहे घंटों, इस बीच श्री बिक्रमादित्य जी का फ़ोन भी आया ऑफिस में क्यूंकि मैंने उनके अर्दली से कहते हुए सुना ' सर एक मैडम बैठी है बहुत देर से 'जगदीश सिंह' का रिपोर्ट कराना चाहती हैं, उधर से क्या जवाब मिला मालूम नहीं, हालाँकि अर्दली ने पूरी कोशिश कि थी धीमें बात करने कि, लेकिन फ़ोन का कनेक्शन का हाल आपको पता ही है ना चाहते हुए भी मजबूर कर देता है ऊँची आवाज़ में बात करने के लिए, हम भी ठान कर गए थे कि आज काम करवा ही जायेंगे, तो जनाब हम बैठे रहे और बैठ रहे, पता नहीं कितने घंटे,इतनी देर तक हमें बैठे देख कर उस अर्दली को भी हम पर दया आने लगी, मैडम आप कल आ जाइएगा, साहब पता नहीं कब तक पहुंचेगे, मैंने भी कहा कोई बात नहीं इस जनम में तो आ ही जाना चाहिए उनको, वो कुछ नहीं बोला , लेकिन वह समझ गया कि सामने जो बैठी है टेढी खीर है,

आखिरकार श्री बिक्रमादित्य सिंह जी कि गाड़ी परिसर में दाखिल हुई, वो गाड़ी से उतारे और धडधाडते हुए अन्दर घुस गए, हम पर नज़र डालने कि ज़रुरत ही नहीं समझी, उनके अन्दर पहुँचते ही अर्दली ने उन्हें बताया कि बाहर एक मैडम सुबह से बैठी हुई है, मुझे और मरियम को सब कुछ सुनाई पड़ रहा था, अर्दली ने आगे बताया कि मैडम और उनके साथ जो आई हैं उनपर जगदीश सिंह ने गोली चलाई है और.... "ठीक तो किया है " बीच में ही थाना प्रभारी श्री बिक्रमादित्य सिंह खुद बोल पड़े, उनका अर्दली पूरी बात भी नहीं बता पाया, जगदीश सिंह ने हमपर गोली चला कर "ठीक किया है" इस बात को एक थाना प्रभारी के मुंह से सुनना मुझे गंवारा नहीं था, मैं जान गयी थी कि यहाँ कुछ नहीं होगा, बिना इजाज़त मैं श्री बिक्रमादित्य सिंह के केबिन में घुस गयी और बोल पड़ी , सिंह जी मैं सुबह से एक घायल लड़की को लेकर बैठी हुई हूँ और आपने बिना हमारी बात सुने फैसला कर लिया कि हमारे साथ आपके मित्र जगदीश सिंह ने जो भी किया वह ठीक किया, तो मैं आपको बता दूँ कि अब आपसे मैं कोई भी बात नहीं करुँगी, अब मेरी बात आपके अफसर से होगी, और एक बात जब इस तरह कि बात आप करते हैं तो कृपया दरवाजा बंद रखा करें, तब कमसे कम लोगों को आपकी असलियत का पता नहीं चलेगा, आप लोग विश्वास कीजिये इस अकस्मात बोली कि बौछार ने श्री बिक्रमादित्य सिंह कि बोलती बंद कर दी , वो मेरा मुंह ताकते रह गए थे, मैंने मरियम, कि बांह पकड़ी और दनदनाती हुई निकल गयी, पिस्तौल गोली उनको दिखाने का अब कोई औचित्य भी नही था....लिहाजा मैं सब अपने साथ ले आई...


अब मैंने पता करना शुरू किया यहाँ का डी.सी कौन है ? डी.सी. थे श्री मदन मोहन झा, उस दिन तो डी.सी. से मिलने जाने का प्रश्न ही नहीं होता था क्योंकि थाने में ही हम बहुत सारा समय गवां चुके थे, मैंने फैसला किया कि मैं दोसरे दिन सुबह जाऊँगी, अगले दिन मैं सात बजे सुबह डी.सी. मदन मोहन झा के आवास/ऑफिस में पहुँच गयी, बाहर संतरी खडा था, मैंने कहा मुझे मिलना है डी.सी. साहब से उसने साफ़-साफ़ मना कर दिया बिना appointment साहब से मिलना नहीं हो सकताऔर वैसे भी साहब अभी सो रहे हैं, ऑफिस में वो दस बजे आते हैं, आप तब आइयेगा और appointment ले लीजियेगा, मेरा दीमाग तो वैसे ही भन्नाया हुआ था, मैं संतरी के लाख रोकने पर भी नहीं रुकी, आपके साहब सो रहे है, हम यहाँ रोज गोली खा रहे हैं और वो सो रहे हैं, कैसे सो रहे हैं, उनको अभी इसी वक्त उठाइए, मुझे अभी बात करनी है, संतरी जितना मुझे बोलता मैडम आप नहीं मिल सकती है, मुझे उतना ही गुस्सा आता जाता, मेरी आवाज़ और ऊँची होती जाती, मैंने वहां बहुत ज्यादा शोर मचा दिया, इतना कि डी.सी.मदन मोहन झा को नींद से जागना पड़ा, वो हाउस गाउन में ही बाहर आगये और संतरी से पुछा 'यह क्या हो रहा है ? कुछ नहीं सर यह मैडम मान ही नहीं रही है, हम बता चुके हैं आप सो रहे हैं, अब मेरी बारी थी,मैंने वही खड़े-खड़े कहना शुरू कर दिया 'सर आप कैसे सो सकते हैं, मुझे बताइए मेरे पूरे परिवार को घर में घुस कर लोग पिस्तौल दिखाते हैं, मौका मिलने पर गोली भी चला दिया, मैं थाना जाती हूँ तो तो थाना प्रभारी श्री बिक्रमादित्य सिंह कहते हैं कि वो गुंडा जो भी कर रहा है ठीक कर रहा है, और आप सो रहे हैं, नहीं सर मैं आपको सोने नहीं दूंगी, आपको इसी वक्त मेरी बात सुननी है , मैं यहाँ से हिलने वाली नहीं हूँ, डी.सी.साहब ने संतरी से कह दिया 'उन्हें अन्दर आने दो', डी.सी. साहब ने खुद ऑफिस खोला, उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया बिठाया ,और सारी बात सुनी, मैं अपने साथ दोनों पिस्तौल और गोली भी लेकर गयी थी , मैंने वो सारे ख़त उन्हें दिखाया, यह भी बताया कि जय अब उमा से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता है, हम लोग भी वही चाहते हैं जो जगदीश सिंह चाहते हैं, लेकिन वो ना सिर्फ हमारे परिवार को दहशतज़दा कर रहे हैं बल्कि जान से मारने कि भी पूरी कोशिश कर रहे हैं और इस काम में सुखदेव नगर के थाना प्रभारी श्री बिक्रमादित्य सिंह जी उनका पूरा साथ दे रहे हैं, डी.सी. साहब ने मेरी पूरी बात अपने हॉउस गाउन में ही सुनी, उन्होंने ब्रश भी नहीं किया था, सारी बात सुन कर उन्होंने कहा अब आप इत्मीनान से घर जाइये यह समस्या अब आपकी नहीं रही मेरी पर्सनल समस्या हो गयी है, और एक बात 'आपका यह जूनून ज़िन्दगी में कभी भी कम नहीं होना चाहिए' मैं तो बस नतमस्तक हो गयी, डी.सी साहब मुझे बाहर तक छोड़ने आये, ऑफिस के बाहर संतरी अब भी खडा था, मैं उसे देख कर मुस्कुरायी वो भी मुस्कुराने लगा, मैंने सलाम के लहजे में अपना हाथ उठाया बदले में उसने भी उठाया, वहाँ से निकलते वक्त मेरा पूरा बदन हवा में उड़ने लगा मानो मुझे पंख लग गए हों...

क्रमशः

Friday, November 6, 2009

बाहुबली की बेटी ...(भाग-३)


मैं अब तक नहीं समझ पायी कि मैं पिस्तौल कैसे छीन पायी, हलाँकि सिंह जी कोई बहुत बलिष्ठ व्यक्ति नहीं थे, लेकिन फिर भी भरी हुई पिस्तौल छीनना मुझे खुद ही अच्च्म्भे में डाल रहा था...., यह होना संभव ही नहीं था अगर मरियम ने, सिंह जी के दोनों पैरों को कस कर नहीं पकडा होता, मरियम जिस तरह से उनके पैरों से लिपट गयी थी सिंह जी खड़े भी नहीं हो पा रहे थे, गिरने की ही हालत हो रही थी उनकी, जैसे ही उन्होंने दीवार पकडा मैंने पिस्तौल छीन ली.....पिस्तौल मेरे हाथ में आते ही उसका मुंह मैंने सिंह जी को ओर किया और उनके बाकी के चमचे डर गए शायद यही वजह थी कि उन्होंने गोली नहीं चलाई वर्ना वो चला सकते थे मेरा रवैया भी उन्हें कुछ अच्छा नहीं नज़र आया था शायद इसीलिए सिंह जी ने जल्दी से कहा था 'समझा देना अपने भाई को हम फिर आवेंगे, बार बार पैर छुडाने कि कोशिश कर रहे थे इ लड़की छोड़ पैर ...अरे...छोड़ ना .., और पता नहीं कितनी गलियाँ देते जा रहे थे ......मरियम ने पाँव छोड़ दिया था, पाँव जैसे ही आजाद हुए सिंह जी दरवाज़े कि ओर भागे और पीछे पीछे चमचे, ......मैं पिता जी को कई बार गिरी हुई पिस्तौल उठाने का इशारा कर चुकी थी लेकिन वो समझ ही नहीं पाए , .....जीवन में पहली बार मैंने पिस्तौल इतने करीब से देखा था, वो भी loaded , मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इसको रक्खा कैसे जाए, अगर कहीं गलती से चल जाए तो ?........ मैं भाइयों के हाथ में भी थमाना नहीं चाहती थी कहीं कोई लेकर आवेश में बाहर निकल गया तो ? ...... मेरे घर में अब दो पिस्तौल आ गयीं थी, एक मेरे पास दूसरी जो पिता जी ने गिराई थी, मैंने दोनों पिस्तौल अपने कब्जे में कर लिया, ......और धीरे से पिता जी को देकर छुपा देने का इशारा कर दिया ......मुझे डर था अगर मेरे भाइयों के हाथ आ जाये तो कुछ भी अनर्थ हो सकता था, ......

काफी रात तक हमलोग बातें करते रहे, मेरे दोनों भाई जवाबी हमले की ही बात करते रहे, .........हम नहीं छोडेंगे, ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे, आवेश से सबका मुख लाल था, लेकिन इन सब बातों में एक शख्स बिलकुल ख़ामोश था....... जय किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था.......उससे भी कोई कुछ नहीं कह रहा था, क्योंकि अब यह समस्या सिर्फ जय कि नहीं रह गयी थी, सबकी थी और हम सब साथ थे, रात बहुत हो चुकी थी लेकिन मेरा घर दोपहर सा जागृत था, बातें ख़तम होने को ही नहीं आती थी, मरियम को कुछ याद आता कि छोटा वाला बदमाश कैसे कर रहा था कभी मुझे याद आ जाता कि सिंह जी कैसे देख रहे थे वैगरह वैगरह, इस पूरी घटना की विवेचना करते-करते रात बीतती जा रही थी, ......मैंने माँ-पिताजी से सोने के लिए कहा, हलाँकि मुझे मालूम था उन्हें नींद नहीं आएगी फिर भी सोना जरूरी है ऐसा कह कर कमरे में भेज दिया, मैं मेरे भाई और मरियम बातें करते रहे, ......जय अब भी चुप था , मैंने कहा क्या बात है बाबू तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो ? ...... चिंता मत करो हमलोग हैं ना ? वो फफक-फफक कर रो पड़ा, 'आज मेरी वज़ह से आप सबकी जान जाते-जाते रही, मैंने सोचा भी नहीं था कि ऐसा हो जायेगा, आज के बाद मैं किसी उमा को नहीं जनता हूँ,........' मुझे बहुत चैन मिला, मैं उसे ऊपर उसके कमरे में ले गयी, इस समस्या का एक ही समाधान था, यह सम्बन्ध ख़तम करना और जय तैयार था, इसलिए नहीं कि वो डर गया था इसलिए कि वो हम सबसे बहुत प्यार करता था, मैंने पुछा कोई चिट्ठी वैगरह तो नहीं है ........शायद यह सब वापस कर दें और कह दें कि अब वो लोग हमारी तरफ से निश्चिंत रहे तो शायद मामला ठंडा हो जाये, जय ने मुझे दो-चार चिट्ठियां निकाल कर दी, कुछ कार्ड्स भी थे और कुछ छोटे मोटे गिफ्ट थे, ......मैंने सब कुछ अपने पास रख लिया और अगली रण-नीति बनाने में जुट गयी,

अब सुबह हो चुकी थी, मरियम ऊँघ रही थी लेकिन मैंने और जय ने तो पलकें झपकाई भी नहीं थी, मरियम को उठाया मैंने........बाहर के आँगन को झाडू करते समय उसे दो गोलियां मिली, गोलियों का साइज़ देख कर बदन में एक झुरझुरी दौड़ गयी , मैंने वो भी सम्हाल कर रख लिया, शायद भागते वक्त बाकी निशानचियों की पिस्तौल से गिरी होगी, अब पड़ोसियों की भी दबी-छुपी सहानुभूति हमें मिलने लगी थी, लोग छुप-छुप कर आने लगे थे, कोई भी खुल्लम-खुल्ला नहीं मिल रहा था, ......सब अन्दर से हमारे साथ थे लेकिन कोई भी दीखाना नहीं चाहता था, मगर मेरा दीमाग कुछ और ही सोच रहा था...... मुझे लगा कि एक लड़की के जीवन का सवाल है, मैं सारी चिट्ठियां उमा को या उसकी माँ को दे दूंगी और हमारी तरफ से निश्चिंत रहने के लिए कह दूंगी तो बात शायद इंतना टूल न पकडे अब.......परन्तु इस काम के लिए मुझे उनके घर जाना होगा जो एक बड़ा मसला था,

मुझे पता था अगर मैंने घर में बताया कि मैं सिंह जी के घर जा रही हूँ, तो सब एक सुर में कहेंगे 'तुम्हारा दीमाग ख़राब हो गया है ' इसलिए यह काम मुझे अकेले करना पड़ेगा, ......यह काम शेर के मुंह से दांत निकालने जैसा था, फिर भी मुझे करना ही था, मैंने मरियम को तैयार कर लिया साथ में चलने के लिए, मैंने सारी चिट्ठियों, कार्ड्स इत्यादि का एक पुलिंदा बनाया और लेकर चल पड़ी, गली में मेरे पहुँचते ही एक सनसनी सी फ़ैल गयी, सबकी डरी हुई नज़र मुझपर टिकी हुई थी, अजीब सा माहौल था, मैंने सामने रहने वाली अलिंदर कि माँ जिन्हें मैं चाची कहती हूँ , मुस्कुरा कर प्रणाम किया लेकिन वो मुस्कुरा नहीं पायी, पूछने लगी कहाँ जा रही हो, मैंने कहा 'उमा के घर' उनका मुंह खुला का खुला रह गया, बोलीं क्या..... ? मत जा बउवा... काहे वास्ते जात हौवा (मत जाओ, किस लिए जा रही हो) मैंने कहा ना चाची जायेके पड़ी (नहीं चाची जाना ही पड़ेगा) , सबकी आँखों में सहानुभूति और अवसाद का मिश्रण था, मरियम और मैं धीरे धीरे उमा के घर कि ओर बढ़ रहे थे, दिल ऐसे धड़क रहा जैसे लोहार कि भाँती चल रही हो, अब मैं गेट के सामने खड़ी थी, गेट खोल कर अन्दर जाने कि हिम्मत नहीं हो रही थी, गली में हर कोई अपने दरवाजे पर खडा होकर झांक रहा था और आगे की घटना का इंतज़ार कर रहा था....

मरियम ने मुझे डोर-बेल दिखाया मैंने बटन दबा दिया और अब प्रतीक्षा शुरू हो गयी, गेट खोलने के लिए कल रात जो आये थे चमचे उनमें से ही एक था, मुझे देखते ही बिना कुछ बोले वो अन्दर भागा, अब हम आने वाली मुसीबत का इंतज़ार कर रहे थे, ........दौड़ते हुए क़दमों कि आवाज़ तेज होती जा रही थी और शोर भी, देखा उमा भागी चली आरही थी और पीछे पीछे सभी, सिंह जी, मालती आंटी, दो-चार चमचे, उमा चीखती जा रही थी मुझे ले जाइये दीदी आपने वादा किया है, मैं यहाँ नहीं रहूँगी, दीदी....दीदी... ये लोग मेरी शादी कर रहें हैं दीदी , आपके भाई को बोलिए दीदी.... मैं हाथ जोड़ती हूँ ... और उसके हाथ जुड़ गए.... सिंह जी ने उमा के बाल पीछे से पकड़ लिए, मुझ पर गालिओं की बौछार होती जा रही थी, उमा को अब वो चमचों के हवाले कर चुके थे, अब मालती आंटी ने उमा को थप्पडों से मारना शुरू कर दिया और जितनी गलियां दे सकती थी देती जा रहीं थीं, मैं खतों का पुलिंदा दिखाने की और बात करने कि बहुत कोशिश कर रही थी, लेकिन ना मेरी बात कोई सुन रहा था, ना ही मेरी आवाज़ उनतक पहुँच रही थी, उमा चीखती जाती थी और मार खाती जाती थी, इतने में ही धायँ... धायँ... कि आवाज़ हुई, एक चमचे के हाथ में पिस्तौल थी जो अब धुआं उगल रही थी, मैंने खुद को टटोला, मैं ठीक थी, मरियम को देखा तो उसके कान से खून की धार किसी खुले हुए नल की तरह बह रहा था......और मरियम को पता ही नहीं था...मेरी फटी हुई आँखों से शायद उसे कुछ भान हुआ ....और इतना खून देख कर और शायद तब तक दर्द भी शुरू हो चूका हो ......वो बिलबिलाने लगी ..... मैंने उसे सम्हाला , गली में सबने अपने दरवाजे बंद कर लिए थे, वो चमचा विजयी नज़रों से मुझे देख रहा था, मैंने भी एक भेदती सी नज़र उसपर डाली, सिंह साहब मुझे खा वाली नज़रों से देखते जा रहे थे.....और हुंकारते जा रहे थे 'खबरदार जो तुम्हरा घर का कोई भी आदमी इ गली में दिखा तो जिंदा नहीं बचेगा , मैंने खतों का पुलिंदा दिखाया और कहा कि हम तो उमा का कुछ सामान देने आये थे और यही कहने आये ..... बस मैं इतना ही कह पायी मरियम गिरने लगी थी, मैंने पुलिंदा और मरियम दोनों को सम्हाला गोली कान को क्षत-विक्षत करती हुई निकल गयी थी शायद, मैंने मरियम से पूछा और कहीं दर्द तो नहीं हो रहा है ? लेकिन वो ज्यादा बात नहीं कर पा रही थी , मैं किसी तरह मरियम को घसीटती हुई घर कि तरफ चल पड़ी, रास्ते में दो पडोसी बाहर आ गए और मरियम को सम्हाल लिया, पीछे से सिंह जी कि मोटी-मोटी गालियों कि आवाज़ अब भी आ रही थी ...

क्रमशः