Saturday, October 31, 2009

बात वो दिल की ज़ुबां पे कभी लाई न गई


बात वो दिल की ज़ुबां पे कभी लाई न गई
चाह कर भी उन्हें ये बात बताई न गई

नीम-बाज़ आँखें भी बरसतीं हैं मेघ लिए
आब तो गिरता रहा पर आग बुझाई न गई

कौन है हम, हैं कहाँ,क्यों हैं ये पूछा तुमने
थी खबर हमको मगर तुमसे बताई न गई

दर्द का दिल पे असर कैसा है मुश्किल गुजरा
बात यूँ बिगड़ी के फिर बात बनाई न गई

जुनूँ-ए-इश्क ने फिर ख़ाक में मिला ही दिया
सलवटें माथे की हमसे तो मिटाई न गई

हम यहाँ आधे बसे, आधे हैं अब और कहीं
ज़िन्दगी बाँट कर भी दूरी मिटाई न गई

राह में उनकी नजर हम है बिछाए बैठे
अब शरर ढूंढें कहाँ, रौशनी पाई न गई

कुछ तो है बात के चेहरे पे कई सोग पड़े
हंसती है कैसे 'अदा' रुख से रुलाई न गई

Friday, October 30, 2009

का उनके सींघ होती है पूँछ होती है.....???


उ दिन इंदिरा गाँधी राष्ट्रिय मुक्त विश्वविद्यालय में हम ज्वाइन किये रहे सीनियर सॉफ्टवेर इंजिनियर (Deputy Director) का पद पर.......पहिला दिन था नौकरी का....IGNOU, K-76, Hauz Khas, में, लेकिन उ दिन हम ज्वाइन ही नहीं करे चाहते थे कारन कि हमरी एक कैसेट Release होवे वाली थी T-Sereis ..गुलशन कुमार की कंपनी से...पुराने गाना सब को उ revival बना रहे थे , हमरी किस्मत कि हमहूँ चुन लिए गए थे.....खैर ५ गाना का रेकार्डिंग हो गया था और उ दिनवा ६वां गाना रिकार्ड होवे वाला था......

हमरे पास IGNOU का appointment letter आइये गया था हम सोचे चल जाते हैं....अपना मुखडा देखावेंगे IGNOU में और फिन गुलशन जी पास नॉएडा पहुँच जावेंगे..... हाँ तो हम बढियां से सपर के पहुँच गए IGNOU, K-76, Hauz Khas,.....जब उहाँ पहुंचे तो लोग-बाग़ बताया कि आपको मैदान गढ़ी जाना होगा....अब हम तो परेशान हो गए ...बोले कि हम तो बस ऐसे ही आये हैं...हम कल ज्वाइन करेंगे......administrative officer, C.H.Thakur हमको मुंह बाए देखते रहे......कहे की आप भी कमाल करतीं हैं मैडम, class one officer का पोस्ट है, एक दिन भी देर करेंगी तो Seniority में पीछे हो जायेंगी.....कल जब प्रमोशन का टाइम आएगा तो आपको पता चलेगा......हमरी उम्र इतनी कम थी कि हम इ सब सोचबे नहीं किए थे ....बात तो ठीक कहे उ

लेकिन....गुलशन कुमार का का होवेगा.....उ जो बैठे होंगे ३० ठो बज्वैय्या लेके ....हम सोचे चलो फ़ोन कर देते हैं और माफ़ी माँग लेते हैं गुलशन कुमार जी के ऑफिस में......अब हम लग गए फ़ोन की तलाश में......स्विच बोर्ड पर एक हैंडसम बैठे मिलते ...दोनों टांग टेबुल पर रख कर बतिया रहे थे...हम गए....हमको देखे तो उनका इश्टाइल में तनी और इजाफा हो गया......तनी सा हमरा कान में उनका बात गया कि उ का बतिया रहे हैं.....साफ़ पता चला कि कौनो लड़की दे गपिया रहे थे...वोही....टाइप का बात......कि जबसे आपको देखा है ...सोने के बाद नींद नहीं आती है...खाने के बाद भूख नहीं लगती है.....बस आपका याद में सूख के तिनका हो गए हैं ...जबकि महाशय का ऊंचाई ६ फ़ुट था और गाल रिलायंस फ्रेश से लाया हुआ सेब जैसा......

खैर हम सोचे चलो थोडा waitiyaiye लेते हैं ....हम वही पर बैठ गए रिसेप्शन में ...दस मिनट हो गया ....उनका प्रेम निवेदन चलिए रहा था....अब हमसे नहीं रहा गया.....हम गए और बमकिये गए .....ये आप का कर रहे हैं.....तभी से आपका अनाप-शनाप हम सुन रहे हैं...यह फ़ोन university की प्रोपर्टी है....और यह university का रिसेप्शन है.... आपके घर का ड्राइंग रूम नहीं....इसी वक्त मुझे फ़ोन दीजिये......उ लगे हमसे बहस करने ...आप है कौन हमसे इ सब कहने वाली ? हम कहे आज से हम आपके बॉस हैं...विश्वास न हो तो ये रहा मेरा appointment लैटर...उनका मुंह लैटर बॉक्स जैसा खुल गया.....हम झट से फ़ोन लिए और फ़ोन किये गुलशन कुमार को लेकिन उनका मिजाज बहुत गरम रहा...हमसे बोल दिए कि सुनो ....! आज के बाद तुम अपना चेहरा हमको कभी मत देखाना....और हम भी आज तक नहीं देखाए उनको अपना चेहरा .....

वोही दिन हम ज्वाइन कर लिए और अपना ऑफिस में बैठ गए.....अब लोग आवे लगे हमसे सलाम दुआ करने....हैंडसम बॉय भी आये लेकिन अकेले नहीं तीन गो के साथ.....हम कहे बैठिये.....सब बैठ गए....औउर उल्टा-सीधा होने लगे.....हम कहे कि आपलोग अपना-अपना नाम बताइये......हैंडसम बॉय का नाम 'गुलशन अरोरा' था, 'गुलशन' नाम सुनते हम सोचे कि आज तो हमरा भविष्यवाणीये में लिखा होगा कि 'गुलशनों' से दूर रहो .....बाकि हम कुछ बोले नहीं........दूसर ने अपना नाम संजीव कपूर बताया फिर, जवाहर लाल कपूर, और भूपेश खत्री......

सब अभियों तक भकुआ के देखिये रहे थे.... ...विश्वासे नहीं कर रहे थे.......कहने लगे मैडम आप इतनी छोटी लगती हैं कि हमलोगों को यकीन ही नहीं आया.........गुलशन ने आपको कोई स्टुडेंट समझा था......हम कहे अब इसमें हम तो कुछो नहीं कर सकेंगे भाई.......और वैसे भी कीमती चीज़ छोटा पैकेट में आता है......अब तो आप सबको हमहीं को झेलना है.....

बात करते-करते उ लोग हमसे पूछ ही दिया कि आप कहाँ की हैं......हम 'बिहार' के हैं.....इतना सुनते ही उनका मुंह ऐसे हो गया जैसे हम कोई डायन या चुडैल होवें......बस अँखियाँ झपका-झपका के देखे लगे.........हम कहे का हुआ भाई ऐसे काहे देख रहे हैं....तो एक ठो बोला...नहीं नहीं मैडम ...बिहार के लोग तो अजीब होते हैं....हमारा तो एड़ी का खीस चुंदी में चढ़ गया.......हम कहे का मतलब है आपका ??? बिहार का लोग कैसे अजीब होते हैं ??? का उनके सींघ होती है पूँछ होती है.....??? का अजीब होता है भाई.......बोले नहीं मैडम वो तो बड़े अजीब से ....काले-काले, गंदे-गंदे से होते हैं.......हम खुद को ऊपर से नीचे हाथ से देखा कर बताये........जी नहीं महराज......बिहार के लोग ऐसे भी होते हैं....!!!!

('गुलशन अरोरा' बाबू अगर जो पढ़ रहे हो तो याद है न....)

Thursday, October 29, 2009

कहाँ है हमरा घर ??


लड़की !
यही तो नाम है हमरा....
पूरे २० बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख में भागी हमहीं रहे... कोई भी झंझट पहिले हमसे टकराता था फिर हमरे माँ-बाउजी से ...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से चीत्कार करते रहते थे उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम बाबूजी के उठने से पाहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना ..पानी भरना....माँ का पूजा का बर्तन मलना...मंदिर साफ़ करना....माँ-बाबूजी के नहाने का इन्तेजाम करना...नाश्ता बनाना ...सबको खिलाना.....पहलवान भाइयों के लिए सोयाबीन का दूध निकालना...कपडा धोना..पसारना..खाना बनाना ..खिलाना ...फिर कॉलेज जाना....
और कोई कुछ तो बोल जावे हमरे माँ-बाबूजी या भाई लोग को ..आइसे भिड जाते कि लोग त्राहि-त्राहि करे लगते.....
हरदम बस एक ही ख्याल रहे मन में कि माँ-बाबूजी खुश रहें...उनकी एक हांक पर हम हाज़िर हो जाते ....हमरे भगवान् हैं दुनो ...
फिर हमरी शादी हुई....शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...हमरे बाबूजी टीचर थे न.....यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...सबकुछ बदल गया रातों रात .....टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट, लोग-बाग.......हम बहुत घबराए.....एकदम नया जगह...नया लोग....हम कुछ नहीं जानते थे ...भूख लगे तो खाना कैसे खाएं......बाथरूम कहाँ जाएँ.....किसी से कुछ भी बोलते नहीं बने.....
जब 'इ' आये तो इनसे भी कैसे कहें कि बाथरूम जाना है.....इ अपना प्यार-मनुहार जताने लगे और हम रोने लगे.....इ समझे हमको माँ-बाबूजी की याद आरही है...लगे समझाने.....बड़ी मुश्किल से हम बोले बाथरूम जाना है....उ रास्ता बता दिए हम गए तो लौटती बेर रास्ता गडबडा गए थे ...याद है हमको....
हाँ तो....हम बता रहे थे कि शादी हुई थी......बड़ी असमंजस में रहे हम .....ऐसे लगे जैसे हॉस्टल में आ गए हैं....सब प्यार दुलार कर रहा था लेकिन कुछ भी अपना नहीं लग रहा था.....
दू दिन बाद हमारा भाई आया ले जाने हमको घर......कूद के तैयार हो गए जाने के लिए...हमरी फुर्ती तो देखने लायक रही...मार जल्दी-जल्दी पैकिंग किये... बस ऐसे लग रहा था जैसे उम्र कैद से छुट्टी मिली हो.....झट से गाडी में बैठ गए ..और बस भगवान् से कहने लगे जल्दी निकालो इहाँ से प्रभु.......घर पहुँचते ही धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिए ....माँ-बाबूजी भी रोने लगे ...एलान कर दिए की हम अब नहीं जायेंगे .....यही रहेंगे .....का ज़रूरी है कि हम उहाँ रहें.....रोते-रोते जब माँ-बाबूजी को देखे तो ....उ लोग बहुत दूर दिखे........माँ-बाबूजी का चेहरा देखे ....तो परेसान हो गए ...बहुत अजीब लगा......ऐसा लगा उनका चेहरा कुछ बदल गया है.......थोडा अजनबीपन आ गया है.....रसोईघर में गए तो सब बर्तन पराये लग रहे थे......सिलोट-लोढ़ा, बाल्टी....पूरे घर में जो हवा रही....उ भी परायी लगी ...अपने आप एक संकोच आने लगा.......जोन घर में सबकुछ हमरा था ....अब एक तिनका उठाने में डरने लगे.... लगा इ हमारा घर है कि नही !..........ऐसा काहे ??? कैसे ??? हम आज तक नहीं समझे....
यह कैसी नियति ??......कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????

और अब एक गीत ...असल में इस गीत को गाया रफी साहब ने है...लेकिन आज हम कोशिश कर रहे हैं..और बताइयेगा ज़रूर कैसा लगा !!

'आपके हसीं रुख पर आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है'


Wednesday, October 28, 2009

चूल्हा पर हम तो फ़िदा .....



आरम्भ
आज एगो फोटू देखे .....और हम तो फलाट हो गए वोंही पर धम से.....का कहें ऐसन हैण्डसम चूल्हा देखे तो रहा नहीं गया .....चूल्हे पर हम तो फ़िदा हो गए ..........सोचे कि आप सब भी मिलिए लीजिये.......मन बहुते खुस हो गया.....चूल्हा से मिल के....(कोई किसिम का कोई कन्फ़ुसियन न होवे कि हम चूल्हा का मालिक का बात कर रहे हैं .....काहे कि आज कल हमरी बात को दोसरा टर्न दे देते हैं लोग भाई, हम कहते हैं आन तो लोग-बाग़ कान समझते हैं .....हाँ नई तो... )
अरे इ फोटो नहीं है.....कविता है......हम झूठ नहीं कह रहे हैं.......आप देखिये ना !!!

आज ठण्ड पर कोई जोर चलता नहीं
चूल्हा जलाने लगे फिर ब्लोगियाने लगे
चूल्हा लकडी का है, कोयले का नहीं
यही बताने लगे फिर ब्लोगियाने लगे
पानी डबकाने की जब भी ज़रुरत हुई
डेकची चढ़ाने लगे फिर ब्लोगियाने लगे

चूल्हा का मालिक को आप सब जानते होंगे सायिद .....हम ही नए हैं इस दुनिया में ........माने कि ब्लॉग का दुनिया में ....और अभी तक बहुतों से हम परिचित भी नहीं हैं....हम ही नहीं जानते हैं इनको ......खाली पढ़े कि चूल्हा पर पानी गरम कर रहे हैं ......
बस हमको इ फोटू बहुते सुथर लगी सोचा ...आज के हिंदी ब्लॉगर से आपहूँ लोग मिल लीजिये ....हम तो इ छवि देख के हैरान हो गए हैं भाई....
अरे ऐसन बिलोग्गर रोज रोज नहीं न मिलेंगे....झूठ बोले का ...कहिये तो !!!!
आदरणीय संजीव तिवारी जी आशा है आप बुरा नहीं मानेंगे......आपसे आज्ञा लेने का कौनो जोगाड़ भी नहीं था ..अब का करते ......और थोडा बहुत चोरी-चकारी का लत भी है हमको भाई..... माफ़ कर दीजियेगा....अब ऐसन गड़बड़ावल आदत है कि अब कब तो सुधरेंगे....का पता ...
हाँ.....तो सुधि पाठकजन इ फोटू आपको कैसन लगा .....तनी कह दीजिये तो......कह दीजिये न !!!

लिखना हमारे होने का अहसास दिलाता है....


ये किसके लिए लिखती हो ?
ये किसके लिए गाती हो ?
तुमने ऐसी टिपण्णी क्यूँ दी ?
उसने ऐसी टिपण्णी क्यूँ दी ?
इतना समय क्यूँ बिताती हो ब्लॉग पर ?
इससे क्या मिलने वाला है ?
ये कौन है ? वो कौन है ?
ऐसे अनगिनत सवालों के बीच उलझती है आज की महिला ब्लाग्गर ....हर दिन ,
एक पोस्ट लिखना यूँ समझिये कि हल्दीघाटी का मैदान हो जाता है ....
आप कहेंगे क्या ज़रुरत है फिर लिखने कि ?? क्यूँ लिखती हैं आप ?
सम्हालिए न अपना घर और अपने बच्चे.....
लेकिन हम क्यूँ न लिखें !!
हम भी पढ़े-लिखे हैं...हम भी सोच सकते हैं....इतनी पाबंदियों के बावजूद सोच सकते हैं....उसे कागज़ पर उतार भी सकते हैं ...हमें भी आत्मसंतुष्टि चहिये...अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए....इसलिए हम लिखते हैं ....नींद में भी लिखते हैं.....लिखना हमारे होने का अहसास दिलाता है....
शायद कुछ कमियाँ रहती होंगी हमारे लेखन में लेकिन जब भी आप किसी भी लेख, कविता या संस्मरण को देखें तो एक बार यह ज़रूर सोचें की पुरुषों से कई गुना ज्यादा जद्दो-जहद के बाद वो लिखी गयी है...
हम यह नहीं कह रहे कि आपकी सहानुभूति चाहिए...बिलकुल नहीं सहानुभूति की कोई अपेक्षा नहीं है और सहानुभूति जैसे कमजोर शब्द से दूर ही रहना चाहते हैं हम...... बस हम इतना ही चाहते हैं कि जब भी आप किसी भी महिला ब्लाग पर जाएँ तो एक नज़र अपनी, माँ, बहन , पत्नी, चाची, नानी, बेटी पर डालें उनके जीवन को देखें और फिर सोचें कि इस रचना को लिखने के लिए लेखिका ने कैसे समय निकाला होगा, ऑफिस की झिकझिक, रसोई के ताम-झाम, पति कि फरमाइश, बच्चों कि चिल्ल-पों के बीच से....कितनी मुश्किल से यह कृति मुकम्मल हो पायी होगी......बस इतना ही निवेदन है....
और आपकी एक टिपण्णी किसी 'अमृता' किसी 'शिवानी' की पहली सीढ़ी हो सकती है....या फ़िर आखरी...!!




चलते चलते ये गीत भी सुन ही लीजिये...,,जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम खेल अधूरा छूटे न...

Monday, October 26, 2009

एक बार फ़िर मैं पराधीन हो गई....


(एक पुरानी कविता )

क्या हाल है गुप्ता जी, आज कल नज़र नहीं आते हैं
कौनो प्रोजेक्ट कर रहे हैं,या फोरेन का ट्रिप लगाते हैं
गुप्ता जी काफी गंभीर हुए, फिर थोडा मुस्कियाते हैं
संजीदगी से घोर व्यस्तता का कारण हमें बताते हैं
अरे शर्मा जी राम कृपा से, ये शुभ दिन अब आया है
पूरा परिवार को कैनाडियन गोरमेंट ने,परीक्षा देने बुलाया है
कह दिए हैं सब बचवन से, पूरा किताब चाट जाओ
चाहे कुछ भी हो जावे, सौ में से सौ नंबर लाओ
एक बार कैनाडियन सिटिज़न जब हम बन जावेंगे
जहाँ कहोगे जैसे कहोगे, वही हम मिलने आवेंगे
वैष्णव देवी की मन्नत है, उहाँ परसाद चाढ़ावेंगे
बाद में हरिद्वार जाकर, गंगा जी में डुबकी लगावेंगे
कनाडा का पासपोर्ट, जब हम सबको मिल जावेगा
बस समझिये शर्माजी जनम सफल हो जावेगा
गुप्ताजी की बात ने हमका ऐसा घूँसा मारा
दीमाग की बत्ती जाग गयी और सो़च का चमका सितारा
कैनाडियन बनने को हम एतना काहे हड़बड़ाते हैं
धूम धाम से समारोह में, अपना पहचान गंवाते हैं
बरसों पहले हम भी तो, ऐसा ही कदम उठाये थे
सर्टिफिकेट और कार्ड के नीचे, खुद को ही दफनाये थे
गर्दन ऊँची सीना ताने, 'ओ कैनाडा' गाये थे
जीवन की रफ्तार बहुत थी, 'जन गण मन' भुलाये थे
जिस 'रानी' से पुरुखों ने प्राण देकर छुटकारा दिलाया था
उसी 'रानी' की राजभक्ति की शपथ लेने हम आये थे
अन्दर सब कुछ तार तार था, सब कुछ टूटा फूटा था
एक बार फिर, पराधीन ! होकर हम मुस्काए थे

Sunday, October 25, 2009

प्रभु मुझे शकुनी सा मामा देना


प्रभु मुझे शकुनी सा मामा देना और मंथरा सी दासी
सोचोगे तुम विक्षिप्त हूँ मैं या हूँ अविवेकी जरा सी
पर सोच के देखो तो समझोगे मैंने क्या समझाया है
उन दोनों ने पूरा जीवन बस प्रेम में ही बिताया है
शकुनी ने दुर्योधन प्रेम में अपना जीवन दैय डारि
और मंथरा कैकैये-भारत के प्रीत में हुई मतवारी
ऐसा मामा कहो कभी कहीं भी तुम्हें नज़र आया
जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन भांजे के सुख में गँवाया
मुझे जो ऐसा मामा मिलता मैं स्वयं को धन्य कहाती
हर जन्म में यही मामा मिले ह्रदय से कामना कर जाती
गौर से गुणों महाभारत तो सबने सबको दिया है धोखा
धर्मराज युधिष्ठिर तक ने पत्नीव्रत का वचन कब रखा
कृष्ण की तो बात ही छोडो न जाने कितने छद्म चलाये
अश्वस्थामा की झूठी खबर सुन गुरु द्रोण के प्राण गँवाए
भीष्म पितामह को शिखंडी की ओट में हताहत कर दिया
और कुंती ने कर्ण से सिर्फ अर्जुन वध का प्रण ले लिया
इतने सारे पात्रों में मुझे बस एक पात्र ही भाया है
शकुनी ने हर हाल में अपनी बहन से प्रेम निभाया है
मत देखो उस प्रेम का प्रतिफल किसको क्या मिला है
बस प्रेम को देखो ऐसा प्रेम दूजा नहीं कभी खिला है
शकुनी के निश्वार्थ प्रेम को आज मलीनता से बचाऊँगी
बस यदि मेरा चल जाए मैं फ़िर महाभारत लिख जाऊँगी

शहर की हवाएँ बदलने लगी हैं


ज़िन्दगी की तहें उतरने लगीं हैं
अश्कों की तासीर बदलने लगी है

देखा उन्हें तो हरारत हुई थी
थोड़ी सी जाँ सम्हलने लगी है

ना झाँका करो झरोखे से बाहर
शहर की हवाएँ बदलने लगी हैं

नज़र में तुम्हारी हया की बाती
लबों की छुअन से मचलने लगी है

अदा से देखो 'अदा' बन गए हम
'अदा' की अदाएं अब चलने लगी हैं








ये कैसे साए हैं ?

पता नहीं !!
मेरा दिल है
या कोई सच
जो हाथ पकडे
लिए जा रहा है
मुझे !
कुछ बता रहा है...

पीछे पूल
नाज़ुक से दिलों का
बेरहमी से
जला कर आई हूँ
तुम्हारे पास...
लेकिन यहाँ
ये कैसे साए हैं ?
जिनकी आदत
है तुम्हें
पर अपना नहीं कहते ....
वापसी के रास्ते ने
मेरा रास्ता रोक लिया..

Friday, October 23, 2009

गा दिए हैं हम.... 'ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा'......


एक तो हम लड़की पैदा हुए, दूसरे मध्यमवर्गीय परिवार में, तीसरे ब्रह्मण घर, चौथे बिहार में और पांचवे थोडा बहुत टैलेंट लिए हुए, तो कुल मिला कर फ्रस्ट्रेशन का रेसेपी अच्छा रहा. याद है हॉल में सिनेमा देखने को मनाही रही......काहे कि उहाँ पब्लिक ठीक नहीं आती है.... सिनेमा जाओ तो भाइयों के साथ जाओ....तीन ठो बॉडीगार्ड ...और पक्का बात कि झमेला होना है...कोई न कोई सीटी मारेगा और हमरे भाई धुनाई करबे करेंगे....बोर हो जाते थे...सिनेमा देखना न हुआ पानीपत का मैदान हो गया...इ भी याद है स्कूल से निकले नहीं कि चार गो स्कूटर और मोटर साईकिल को पीछे लग जाना है...हम रिक्शा में और पीछे हमरी पलटन...स्लो मोसन में .... घर का गली का मुहाना आवे और सब गाइब हो जावें....एक दिन एक ठो हिम्मत किया था गली के अन्दर आवे का....आ भी गया था...और बच के चल भी गया.....बाकि मोहल्ला प्रहरियों का नज़र तो पड़िये गया था.... दूसर दिन उन जनाब की हिम्मत और बढ़ी ....फिर चले आये गल्ली में......हम तो अपना घर गए .....बाद में पता चला उनका वेस्पा गोबर का गड्ढा में डूबकी लगा गया ......निकाले तो थे बाद में ....बाकि काम नहीं किया शायिद ......काहे की उ नज़र आये ....वेस्पा नहीं.....
हम गाना गाते थे .....और हमरे बाबू जी रोते थे ...इसका बियाह कैसे होगा इ गाती है !!!....आईना के आगे २ मिनट भी ज्यादा खड़े हो जावें तो माँ तुरंते कहती थी ''इ मेन्जूर जैसे का सपरती रहती हो'' माने इ कहें कि चारों चौहद्दी में पहरा ही पहरागीत गावे में भी रोकावट था, खाली लता दीदी को गा सकते थे....और हमको आशा दीदी से ज्यादा लगाव था....कभी गाने को नहीं मिला आशा दीदी का चुलबुला गीत सब......सब बस यही कहते रहे....इ सब अच्छा गीत नहीं है......अच्छा घर का लड़की नहीं गाती है इ सब.....हम आज तक नहीं समझे कि गीत गाने में अच्छा घर का लड़की बुरी कैसे हो जाती है....गीत गावे से चरित्र में धब्बा कैसे लगता है...उस हिसाब से तो आशा जी का चरित्र सबसे ख़राब है...फिर काहे लोग उनका गोड़ में बिछे हुए हैं... बस यही बात पर आज हम गाइए दिए हैं इ गीत ....अब आप ही बताइए.....इसको गाकर हम कोई भूल किये हैं का .....का हमरी प्रतिष्ठा में कोई कमी आएगी आज के बाद ????



फिल्म : मेरे सनम
आवाज़ : आशा भोंसले
गीतकार : मजरूह सुल्तानपुरी
संगीतकार : ओ.पी. नैय्यर


ये है रेशमी
जुल्फों का अँधेरा न घबराइये
जहाँ तक महक है
मेरे गेसुओं के चले आइये

सुनिए तो ज़रा जो हकीकत है कहते हैं हम
खुलते रुकते इन रंगीं लबों कि कसम
जल उठेंगे दिए जुगनुओं कि तरह २
ये तब्बस्सुम तो फरमाइए

ला ला ला ला ला ला ला ला
प्यासी है नज़र ये भी कहने की है बात क्या
तुम हो मेहमाँ तो न ठहरेगी ये रात क्या
रात जाए रहे आप दिल में मेरे २
अरमाँ बन के रह जाइए.

ये है रेशमी
जुल्फों का अँधेरा न घबराइये
जहाँ तक महक है
मेरे गेसुओं के चले आइये

किसी के मारे हम कब मरेंगे ....



किसी के मारे हम कब मरेंगे
बातों में तल्खी की धार ने मारा

जाँ हमारी अटकी रही थी
न आये तुम इंतज़ार ने मारा

गुलों का झांसा देते रहे तुम
दामन में पोशीदा खार ने मारा

थे ज़िन्दगी से बस हारे ही हारे
तुमसे जो हारे हार ने मारा

हमें तो आदत है बेतकल्लुफी की
तकल्लुफ से मिला यार ने मारा

Thursday, October 22, 2009

खुशदीप जी, आप सुझाये और हम न माने ऐसे तो हालात नहीं ...


खुशदीप जी
आप सुझाये और हम न माने ऐसे तो हालात नहीं ...
आपकी पसंद की दाद देनी पड़ेगी....
आपकी बातों से यह भी कुछ-कुछ समझ में आ रहा है की संगीत के प्रति आपको आगाध प्रेम है...
आपकी टिपण्णी बताती है ..कई जगहों पर...
और ये भी समझ में आ रहा है आप गाते होंगे.....जो आपके मुखारविंद पर भी दिखता है...तो लगे हाथों अपना गाया हुआ भी कुछ कहीं पोस्ट कर ही दीजियेगा....
सभी सुधि पाठकों से भी यही गुजारिश हैं की मेरे साथ-साथ आप भी खुशदीप जी के गायन को सुनने की जोरदार अपील करें....
फिलहाल हम आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं और सुनते हैं आपकी पसंद और बहुतों की पसंद आपके नाम....

फिल्म : शंकर हुसैन
आवाज़: लता मंगेशकर
संगीत: खय्याम
गीतकार: जानिसार अख्तर


आप यूं फासलों से गुज़रते रहे

दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

आहटों से अंधेरे चमकते रहे

रात आती रही रात जाती रही

गुनगुनाती रहीं मेरी तन्‍हाईयां

दूर बजती रहीं कितनी शहनाईयां

जिंदगी जिंदगी को बुलाती रही

क़तरा-क़तरा पिघलता रहा आसमां

रूह की वादियों में जाने कहां

इक नदी दिलरूबा गीत गाती रही

आप की गर्म बांहों में खो जाएंगे

आप के नर्म ज़ानों पे सो जायेंगे

मुद्दतों रात नींदें चुराती रही

आप यूं फ़ासलों से गुज़रते रहे ।।

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Wednesday, October 21, 2009

तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे के जैसे युगों से तुम्हें जानती हूँ



ये गीत मेरी बहुत अच्छी सहेली को समर्पित है.....
पतरकी.......ये सिर्फ़ तेरे लिए है .....!!!!!
गुडिया ..ये तेरी पसंद हैं...
मैं इतना जानती हूँ कि तेरी जान है ये गीत...
तू इसे सुनकर भावः विभोर होती है..और मेरे आँसू नहीं थमते हैं,,,
तू तो सही में आलसी है......हा हा हा हा

आप सब सुने और सिर्फ इतना बता दें कि इस गीत को सुनकर कैसा लग रहा है....
अपने भावः दिल खोल कर रखें....मुझे सिर्फ इतना ही कहना है .....ये वो गीत है जो मुर्दे में जान डाल दे........
और मेरे लिए ये गीत एक प्रार्थना से कम नहीं है...

आवाज़ : लता मंगेशकर
फिल्म : तुम्हारे लिए
गीतकार: नक्श ल्यालपुरी
संगीत : जयदेव


तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे
के जैसे युगों से तुम्हें जानती हूँ
अगर तुम हो सागर -२
मैं प्यासी नदी हूँ
अगर तुम हो सावन मैं जलती कली हूँ
पिया तुम हो सागर

मुझे मेरी नींदें -२
मेरा चैन दे दो
मझे मेरे सपनो कि एक रैन दे दो न
यही बात पहले-२
तुमसे कही थी वोही बात फिर आज दोहरा रही हूँ
पिया तुम हो सागर
तुम्हें छू के पल में बने धूल चन्दन -२
तुम्हारी महक से
महकने से लगे तन-२
मेरे पास आओ-२
गले से लगाओ
पिया और तुमसे मैं और क्या चाहती हूँ
तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे
के जैसे युगों से तुम्हें जानती हूँ
अगर तुम हो सागर

मुरलिया समझ कर-२
मुझे तुम उठा लो
बस एक बार होठों से अपने लगा लो न -2
कोई सुर तो जागे -२
मेरी धडकनों में
के मैं अपनी सरगम से रूठी हुई हूँ...

तुम्हें देखती हूँ तो लगता है ऐसे
के जैसे युगों से तुम्हें जानती हूँ
अगर तुम हो सागर
मैं प्यासी नदी हूँ
अगर तुम हो सावन मैं जलती कली हूँ
पिया तुम हो सागर

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Tuesday, October 20, 2009

ओ मन मेरे !! कुछ तो बोल.....


ओ मन मेरे !! कुछ तो बोल
क्यूँ चुप बैठा है लब तो खोल

हर चीज़ की कीमत होती है
बस साँसें होतीं हैं अनमोल

बातें कर ले जी भर कर के
बोलने से पहले शब्द को तोल

सीधी सच्ची बात कही थी
बेवजह इनमें जहर न घोल

बंद मुट्ठी तू बन जा 'अदा'
अपने दिल के राज न खोल

Sunday, October 18, 2009

बित्ते भर की पट्टी.....

















गांधारी आपने ये क्या अपना लिया
नेत्र रहते हुए स्वयं को नेत्रहीन बना लिया
माना कि आप पर गूलर का अभिशाप था
और सत्य है आपने किया नहीं कोई पाप था
नेत्रहीन से व्याह हुआ नियति बहुत क्रूर थी
बाँध पट्टी आँख पर जताया बिरोध साफ़ था
पर क्या यह कहीं से भी एक उचित कार्य था
निर्बल पति को अधिक निर्बल बताना अनिवार्य था ?
पट्टी जो न होती आँख पर तो आप सब देखतीं
दुर्योधन दुह्शाशन के दुष्कर्मों को भी रोकतीं
आँखें गर खुली रहतीं तो बहुत कुछ नही होता
और शायद हस्तिनापुर सिंहासन भी कलंकित नहीं होता
पाँचाली की लाज न लुटती, न जाते पांडव अज्ञातवास
भीष्म पितामह भी नहीं लेते शर-शैय्या पर अंतिम श्वास
कहाँ कभी रोका आपने दुर्योधन की मनमानी को
इसीलिए तो प्रश्रय मिला अनाचारी अज्ञानी को
दुर्योधन शकुनी दुह्शाशन ने मचाया घोर उत्पात था
परन्तु आपका विवेक तो बंधा पट्टी के साथ था
युधिष्ठिर को राज्य मिलना, यह उनका अधिकार था
लेकिन आपको भी राज्य से कुछ अधिक ही प्यार था
ध्रितराष्ट्र नेत्रहीन होकर भी थे बहुत ही विवेकी
युधिष्ठिर को राज्य सौंपने की पहल उन्होंने ने ही की
पर आपको यह सब भला तब कहाँ मंजूर था
आपके साथ ही तो खडा दुर्योधन का गुरूर था
जब माँ जान बूझ कर आंखों पर पट्टी लगाती हैं
तब संतान ग़लती नही, ग़लती संतान बन जाती हैं
बित्ते भर की इस पट्टी की कीमत बहुत ही थी भारी
बिना बात के इस पट्टी ने महाभारत ही रचा डारी थी

Saturday, October 17, 2009

राम नाम का दीप जले जग में सारे जहान...


जग मग दीप जले
दीप जले दीप जले
राम नाम का दीप जले
जग में सारे जहान

ओ री आत्मा कर तू पुकार
निज स्वामी का कभी न बिसार
राम नाम का हो संचार
जग में सारे जहान
कर तू कर्म सदा निष्काम
ध्यान लगा तू प्रभु के नाम
राम नाम हो हर परिणाम
जग में सारे जहान

जग मग दीप जले
दीप जले दीप जले
राम नाम का दीप जले
जग में सारे जहान

( सुर में अगर सुनना हो तो यहाँ सुनिए )

Thursday, October 15, 2009

न जाने कब से दोनों जल में ही जल रहे हैं


हम हैं घटायें कारी और वो हैं घनेरे बादल
न जाने कब से दोनों जल में ही जल रहे हैं

खुशियों के पाँव आये थे वो रेत पे चलके
मिटने का डर है खौफ़ है हम उनपे चल रहे हैं

चोरी से तूने मेरा वो हर दर्द चुराया है
पर हादसों के फ़ासले संग मेरे चल रहे हैं

मिल के भी कहाँ वो जी अब हमसे कभी मिलते
चेहरे के पीछे से कई चेहरे निकल रहे हैं

महफ़िल सजी है रौनके महफ़िल है उनके दम से
खुश है ज़माना कितना पर हम तो जल रहे हैं



बदली में छुप गया है वो जो चाँद हमारा है
बने हैं आफ़ताब हम फलक में ढल रहे हैं

उड़ते 'अदा' से वक्त के बेजान बगूले
जीवन के सलीके से भला क्यूँ हम टल रहे हैं

Tuesday, October 13, 2009

पुरुषोत्तम...




त्याग दिया वैदेही को
और जंगल में भिजवाया
एक अधम धोबी के कही पर
सीता को वन वन भटकाया
उस दुःख की क्या सीमा होगी
जो जानकी ने पाया
कितनी जल्दी भूल गए तुम
उसने साथ निभाया

उसने साथ निभाया
जब तुम कैकेयी को खटक रहे थे
दर दर ठोकर खाकर,
वन वन भटक रहे थे



अरे, कौन रोकता उसको !!
कौन रोकता उसको !!
वह रह सकती थी राज-भवन में
इन्कार कर दिया था उसने
तभी तो थी वह अशोक-वन में !
कैसे पुरुषोत्तम हो तुम !
क्या साथ निभाया तुमने !
जब निभाने की बारी आई
तभी मुँह छुपाया तुमने ?

छोड़ना ही था सीता को
तो खुद छोड़ कर आते
अपने मन की उलझन
एक बार तो उसे बताते !
तुम क्या जानो कितना विशाल
ह्रदय है स्त्री जाति का
समझ जाती उलझन सीता
अपने प्राणप्रिय पति का

चरणों से ही सही, तुमने
अहिल्या का स्पर्श किया था
पर-स्त्री थी अहिल्या
क्या यह अन्याय नहीं था ?
तुम स्पर्श करो तो वह 'उद्धार' कहलाता है
कोई और स्पर्श करे तो,
'स्पर्शित' !
अग्नि-परीक्षा पाता है

छल से सीता को छोड़कर पुरुष बने इतराते हो !
भगवान् जाने कैसे तुम 'पुरुषोत्तम' कहलाते हो
एक ही प्रार्थना है प्रभु !
इस कलियुग में मत आना
गली गली में रावण हैं
मुश्किल है सीता को बचाना
वन उपवन भी नहीं मिलेंगे
कहाँ छोड़ कर आओगे !
क्योंकि, तुम तो बस,
अहिल्याओं का उद्धार करोगे
और सीताओं को पाषाण बनाओगे

हिंदुत्व...तेरी कहानी...


बहुत पुरानी बात है
पृथ्वी के पूर्वी कोने में
एक अति तेजस्वी बालक ने
जन्म लिया
ओजपूर्ण था मुखमंडल उसका
सभ्यता की पहली धोती
उसने ही थी पहनी
ज्ञान-विज्ञान से बना
तन उसका
कीर्ति पताका लहराई
ऊंचे गगन में
यशगान की धुन फ़ैल गयी
संपूर्ण भुवन में

धीरे धीरे वो श्रेष्ठ बालक
अति सुन्दर युवक बन गया
उसकी ज्ञान भरी बातें
लोग गाने लगे
इस कोने से उस कोने तक
पहुँचाने लगे और
धीरे-धीरे अपनी बातें भी
मिलाने लगे

हजारों वर्ष
हो गयी उम्र उसकी
बोल नहीं सकता वह
खो दी उसने अपनी वाणी
आज भी लोग
उसके नाम के गीत गा रहे हैं
अब उसकी नहीं
सिर्फ
अपनी सुना रहे हैं
नाम लेले कर उसका
थोथा ज्ञान फैला रहे हैं
जो बात कभी नहीं कही
उसके नाम उद्धरित करते जा रहे हैं
वह मूक चुप-चाप सब कुछ
देख रहा है
सोचता है-
क्या मैंने कहा था ?
और ये क्या कह रहा है ?

इस आस से कि शायद
उसकी वाणी लौट आये
फिर वो इन मूर्खों
को समझाए
जीए जा रहा है
लांछन उन व्याख्याओं का
जो उसने कभी नहीं दिया
अपने सर लिए जा रहा है

सच्चाई के पत्थरों से
जो सीधी सरल सी राह
उसने बनायीं थी
जिसमें संस्कारों के फूल और
सहिष्णुता कि छाया, छाई थी
उस मार्ग से कई वक्र रास्ते
लोगों ने लिए हैं निकाल
अंधविश्वास,छुआ-छूत
आदि राहों का
बिछा दिया अकाट्य जाल
जिसकी परिधि
ऐसी फैली कि
फैलती ही गयी
सत्य मार्ग धूल-धूसरित होकर
इस चक्रव्यूह में लुप्त हुआ
संस्कारों के फूल मुरझाये
वेद-पुराण सब गुप्त हुआ

सच ही तो है
एक झूठ सौ बार कहो तो
सबने सच मानी है है
हिन्दुत्व !
तेरी भी यही कहानी है

Monday, October 12, 2009

राधा का संताप .....


हे माधव !!
क्या समझ पाए तुम राधा का संताप
तुम सर्वज्ञ दीनबंधु हर लेते हो हर पाप
किस दुविधा में डाला उसको, कैसा दिया यह ताप
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा, बन गया उसका शाप

राधा घर से बे-घर हो ली
तुमने अपनी दुनिया संजो ली !
कभी सोचा क्या हुआ उसका ?
जो करती रही बस हरी जाप !
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप

जब तक चाहा प्रेम जताया
वन-कानन में रास रचाया
ऐसे उड़ा दिया ह्रदय से
जैसे जल बने भाप
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप

कान्हा तुम भी अलग नहीं हो
पुरुष वर्ग से विलग नहीं हो
खेल-खेल कर ठुकराया है
राधा-मीरा सब एक माप
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप

भामा, रुक्मणी, मीरा या राधा
जीव-ब्रह्म का रिश्ता है साधा
सबने तुमको ह्रदय बसाया
और तुम करते रहे मजाक
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप


क्या कहा ?
राधा का दुःख था ही कितना ?
अरे ! सम्पूर्ण भुवन में दुःख है जितना
सोच के देखो कभी कृष्ण तो
ह्रदय जायेगा काँप
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप

सोचा कभी ?
कहाँ गयी, क्या हुआ होगा उसको
कभी ह्रदय बसाया जिसको
बौरा गयी तुम्हें ढूंढ़ ढूंढ़
निगल गया मरू-ताप
यह अलौकिक प्रेम तुम्हारा बन गया उसका शाप

Sunday, October 11, 2009

एक और अहल्या ....


निस्तब्ध रात्रि की नीरवता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
अरुणिमा की उज्ज्वलता सी पडी हूँ
कब आओगे ?
सघन वन की स्तब्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
चन्द्र किरण की स्निग्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
स्वप्न की स्वप्निलता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
क्षितिज की अधीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
सागर की गंभीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
प्रार्थना की पवित्रता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?

हे राम ! तुमने एक अहल्या तो बचा लिया
एक और धरा की विवशता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?

Saturday, October 10, 2009

आज उर्मिला बोलेगी...


सावधान ! हे रघुवंश
वो शब्द एक न तोलेगी
मूक बधिर नहीं,कुलवधू है
आज उर्मिला बोलेगी |

कैकेयी ने दो वरदान लिए
श्री दशरथ ने फिर प्राण दिए
रघुबर आज्ञा शिरोधार्य कर
वन की ओर प्रस्थान किये
भ्रातृप्रेम की प्रचंड ऊष्मा
फिर लखन ह्रदय में डोल गई
मूक बधिर नहीं, कुलवधू है
आज उर्मिला बोलेगी |

रघुकुल की यही रीत बनाई
भार्या से न कभी वचन निभाई
पितृभक्ति है सर्वोपरि
फिर पूजते प्रजा और भाई
पत्नी का जीवन क्या होगा
ये सोच कभी न गुजरेगी
मूक बधिर नहीं, कुलवधू है
आज उर्मिला बोलेगी |

चौदह बरस तक बाट जोहाया
एक पत्र भी नहीं पठाया
नवयौवन की दहलीज़ फांद कर
अधेड़ावस्था में जीवन आया
इतनी रातें ? कितने आँसू ?
की कीमत क्या अयोध्या देगी ?
मूक बधिर नहीं, कुलवधू है
आज उर्मिला बोलेगी |

हाथ जोड़ कर विनती करूँ मैं
सातों जनम मुझे ही अपनाना
परन्तु अगले जनम में लक्ष्मण
राम के भाई नहीं बन जाना
एक जनम जो पीड़ा झेली
अगले जनम न झेलेगी
मूक बधिर नहीं, कुलवधू है
आज उर्मिला बोलेगी |

Friday, October 9, 2009

शूर्पणखा !


शूर्पणखा ! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,
किस दुविधा में गवाँ आई तू अपना मान-सम्मान
स्वर्ण-लंका की लंकेश्वरी, भगिनी बहुत दुराली
युद्ध कला में निपुण, सेनापति, पराक्रमी राजकुमारी
राजनीति में प्रवीण, शासक और अधिकारी
बस प्रेम कला में अनुतीर्ण हो, हार गई बेचारी
इतनी सी बात पर शत्रु बना जहान
शूर्पणखा! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,

क्या प्रेम निवेदन करने को, सिर्फ मिले तुझे रघुराई ?
भेज दिया लक्ष्मण के पास, देखो उनकी चतुराई !
स्वयं को दुविधा से निकाल, अनुज की जान फँसाई !
कर्त्तव्य अग्रज का रघुवर ने, बड़ी अच्छी तरह निभाई !
लखन राम से कब कम थे, बहुत पौरुष दिखलायी !
तुझ पर अपने शौर्य का, जम कर जोर आजमाई !
एक नारी की नाक काट कर, बने बड़े बलवान !
शूर्पणखा ! हे सुंदरी तू प्रज्ञं और विद्वान्,



ईश्वर थे रघुवर बस करते ईश का काम
एक मुर्ख नारी का गर बचा लेते सम्मान
तुच्छ प्रेम निवेदन पर करते न अपमान
अधम नारी को दे देते थोड़ा सा वो ज्ञान
अपमानित कर, नाक काट कर हो न पाया निदान
युद्ध के बीज ही अंकुरित हुए, यह नहीं विधि का विधान
हे शूर्पणखा ! थी बस नारी तू, खोई नहीं सम्मान
नादानी में करवा गयी कुछ पुरुषों की पहचान

Thursday, October 8, 2009

एकादशानन...


(एक पुरानी रचना है )
अक्सर मेरे विचार, बार बार जनक के खेत तक जाते हैं
परन्तु हर बार मेरे विचार, कुछ और उलझ से जाते हैं
जनक अगर सदेह थे, तो विदेह क्योँ कहाते हैं ?
क्योँ हमेशा हर बात पर हम रावण को दोषी पाते हैं ?
मेरे विचार, फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं

क्योँ दशानन रक्तपूरित कलश जनक के खेत में दबाता है ?
क्योँ जनक के हल का फल उस घड़े से ही जा टकराता है ?
कैसे रावण के पाप का घड़ा कन्या का स्वरुप पाता है ?
क्योँ उस कन्या को जनकपुर सिंहासन बेटी स्वरुप अपनाता है ?
किस रिश्ते से उस बालिका को जनकपुत्री बताते हैं ?
मेरे विचार, फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं

क्योँ रावण सीता स्वयंवर में बिना बुलाये जाता है ?
क्योँ उस सभा में होकर भी वह स्पर्धा से कतराता है ?
क्योँ उसको ललकार कर प्रतिद्वन्दी बनाया जाता है ?
क्योँ लंकापति शिवभक्त, शिव धनुष तोड़ नहीं पता है ?
क्योँ रावण की अल्पशक्ति पर शंकर स्वयम् चकराते हैं ?
मेरे विचार, फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं

क्योँ इतना तिरस्कृत होकर भी, वह दंडकवन को जाता है ?
किस प्रेम के वश में वह, सीता को हर ले जाता है ?
कितना पराक्रमी, बलशाली, पर सिया से मुंहकी खाता है ?
क्योँ जानकी को राजभवन नहीं, अशोकवन में ठहराता है ?
क्या छल-छद्म पर चलने वाले इतनी जल्दी झुक जाते हैं ?
मेरे विचार, फिर बार बार जनक के खेत तक जाते हैं

क्योँ इतिहास दशानन को इतना नीच बताता है ?
फिर भी लंकापति मृत्युशैया पर रघुवर को पाठ पढ़ाता है
वह कौन सा ज्ञान था जिसे सुन कर राम नतमस्तक हो जाते हैं ?
चरित्रहीन का वध करके भी रघुवर क्यों पछताते हैं ?
रक्तकलश से कन्या तक का रहस्य समझ नहीं पाते हैं
इसीलिए तो मेरे विचार जनक के खेत तक जाते हैं

Wednesday, October 7, 2009

फूल शोलों को आँधी को बया कहते हैं


तुमको हमारी उमर लग जाए.....


फूल शोलों को आँधी को बया कहते हैं
हमसे दीवाने, दीवानगी को अदा कहते हैं

देख ले ली है ख़ुदा ने तो जहाँ से रुख़सत
अब हम बन्दों को सरे-आम ख़ुदा कहते हैं

उम्र भर रोये औ लिपटे रहे तेरे दामन से
तुम इसे कुछ भी कहो हम तो वफ़ा कहते हैं

तेरी इस एक झलक का है असर न पूछो
वाइज़ बड़े शौक से इसे दर्द-ए-दवा कहते हैं

सजदे में सर झुका जब भी तेरा दर आया है
जाने क्यूँ लोग इसको भी खता कहते हैं

बया - एक छोटी चिडिया

Tuesday, October 6, 2009

हिंदू दुल्हन....मुस्लिम दुल्हन....



इनदिनों लेखों को पढ़ कर खासा अनुमान लग रहा है कि धार्मिकों कि संख्या में काफी बढोतरी हुई है...
कुछ लोगों ने तो अपना जीवन ही ब्लॉग को इस लिए समर्पित किया है कि वो धर्म का प्रचार-प्रसार करें...और जुटे हुए हैं जी-जान से इस काम में.....कहीं एक टिपण्णी भी पढ़ी.....शायद.......हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्यता जिंदाबाद..!!!
हर जगह आरोप-प्रत्यारोप देख कर मन हुआ कि कुछ ऐसा कहें जिसमे कुछ मिलने-मिलाने की बात हो....जहाँ ये लगे कि हम जुड़े हुए हैं ....
धर्म और संस्कृति दो अलग-अलग विधाएं हैं ....धर्म आप पर आपके जन्म के साथ ही थोप दिया जाता है....मेरा जन्म हिन्दू परिवार में हुआ इसलिए मैं हिन्दू हूँ.....मेरा अपना कोई चुनाव नहीं है....लेकिन संस्कृति !!..जहाँ लोग रहते हैं वहीँ की अपनाते हैं....
आज मैं यह बताना चाहती हूँ की हम महिलाएं इस धर्मवाद से कितनी अलग हैं ...
महिला हिन्दू हो या मुसलमान पुरुषों की अपेक्षा हर अच्छी चीज़ जल्दी अपना लेती है...
भारत में मैं बहुत सारी मुस्लिम शादियों में शामिल हुई हूँ ...और यकीन मानिए ज्यादातर रस्म हिन्दुओं के जैसे ही थे.....जैसे :
हल्दी या उपटन लगाने कि रस्म, बिलकुल वैसा ही था जैसा हिन्दुओं में होता है यहाँ तक कि गाने, परिछना सब कुछ एकदम हमारे जैसा....कोई फर्क नहीं....
जबकि साउदी अरब में हल्दी नाम की कोई रस्म नहीं होती .....
मेहँदी की रस्म भी बिलकुल वैसी ही थी जैसी हमारी थी ....

मेरी मुस्लिम सहेली की शादी में बारात आई थी और मेरी शादी में भी ...
अब बात करते हैं शादी के जोड़े की....मेरी मुस्लिम सहेली ने शादी में पीला जोड़ा पहना था ठीक वैसा ही जैसा मैंने पहना था.....विदाई के वक्त मैंने लाल जोड़ा पहना था....उसने भी....कहाँ था फर्क ?
मेरी शादी में शहनाई, और ढोल बजा था ...उसकी भी ...
जबकि साउदी अरब में दुल्हन सफ़ेद गाउन पहनती हैं ...ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका कनाडा में इसाई पहनते हैं वेडिंग गाउन ...
मेरी सहेली ने भी मंगल सूत्र पहना था.....काले मोती और सोने की  चेन....मैंने भी वही पहना था....फर्क कहाँ था...???
जबकि साउदी अरब में मंगल सूत्र नहीं पहनते....
मैंने माँगटीका पहना था, उसने भी पहना था...
साउदी अरब में तो कोई नहीं पहनता माँग टीका .....
मैंने सिन्दूर लगाया था और उसने अफसां...
जबकि साउदी अरब में न तो सिन्दूर लगाते हैं न ही अफसां....
यहाँ तक की उसकी शादी में गाने भी लाउड स्पीकर पर वही बजे जो मेरी शादी में बजे थे ...
जबकि साउदी में तो लाउड स्पीकर बजाना या गाना जेल भिजवा सकता है या कोडे लगवा सकता है...
और बारात !! अजी भूल जाइए बारात-सरात....साउदी में ये नही होता...

गौर से देखें तो ये सारे रस्म-रिवाज़ संस्कृति महिलाएं ही तो अपनाती हैं.....बिना किसी धर्म का लेबल लगाये...
क्या फरक पड़ता है साउदी अरब में क्या होता है ...रहना तो हमें साथ में है ...और देखना ये है कि प्यार-प्रीत से साथ में कैसे रहे...

क्या ये नहीं हो सकता की कुछ आप हमें अपनाए कुछ हम आपको अपनाएँ ....और यह जीवन गुजर जाए...
क्यूंकि आप सबसे अच्छे हो नही सकते और हम इतने बुरे हो नही सकते....

Monday, October 5, 2009

राम औ रहीम हो गए इस जहाँ से फरार


सन्नाटों का शहर है ये है खौफ़ का बज़ार
जिंदा यहाँ गुलाम हैं औ बुतों की सरकार

मसला बस इतना तुम्हें है हूरों की दरकार
गर मार कर मरोगे तो हो जाए बेडा पार

राम औ रहीम हो गए इस जहाँ से फरार
लड़ते रहेंगे हम तो बस ख़ुदा है कुसूरवार


गीता, कुरान, बाइबल तो पढाये पाठ प्यार
बहरों की बड़ी भीड़ है और चीखना बेकार

Sunday, October 4, 2009

सनम खड़े मिले


गैरों का वो हुजूम औ सनम खड़े मिले
माणिक कोई अंगूठी में जैसे जड़े मिले

निकल पड़े थे हम तो यूँ ही आज सरे-आम
नुक्कड़ पर ही तो वो मेरे मकसद खड़े मिले

कितना तो मर गए हैं जी हम एक ही दिन में
न जाने फिर भी कैसे हम सीधे खड़े मिले

ये आपने बताया तो हम जान पाए हैं
आँखों में आपके मेरे सपने पड़े मिले

कहते हैं मेरा ज़िक्र किसी और से न कर
रकीबों से कहीं कोई रक़ीब जुड़े मिले

कश्ती भी पुरानी है ,पुराने से हैं ये पाल
डर थामे हुए हाथ है संग हम खड़े मिले

Saturday, October 3, 2009

शैतान का आविष्कार



इनदिनों दूध की बात कर रही हूँ मैं तो सोचा क्यूँ न कुछ जानकारी सिंथेटिक दूध पर भी दे दूँ...
रासायनिक दूध, जिसे आम तौर पर सिंथेटिक दूध कहा जाता है , शैतान का आविष्कार है जिसे कुछ दूध माफिया दिमाग की उपज कहा सकता जा है , रिपोर्ट है कि इस तरह के नकली और घातक दूध का उत्पादन बड़ी मात्रा में किया जाता है राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक के बाजारों में बड़ी मात्र में यह उबलब्ध है और उडीसा पंजाब और हरियाणा में भी अब देखने को मिल रहा है.
इसे बनाने में जो रसायन प्रयोग में कहा लाया जाता है वो है , यूरिया कास्टिक सोडा, रिफाइंड तेल (सस्ता खाना पकाने के तेल) और आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला डिटर्जेंट पावडर, जिसे एक निश्चित मात्रा में मिला कर , इन सबको प्राकृतिक दूध के साथ मिला कर बेचा जाता है

सिंथेटिक दूध बनाने में तेल और डिटर्जेंट मिला कर सफ़ेद रंग और झागदार दूध के लक्षण दिखाए जाते हैं ,
परिष्कृत तेल दुग्ध वसा के लिए एक विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाता है.
कास्टिक सोडा रसायन का प्रयोग प्राकृतिक दूध की अम्लता को कम करने के लिए किया जाता है जिससे कि परिवहन के दौरान प्राकृतिक दूध अम्ल से फट न जाए
यूरिया / चीनी का प्रयोग ठोस वसा (SNF) के लिए किया जाता है जो प्राकृतिक दूध में मौजूद होता हैं,

सिंथेटिक दूध की तैयारी की कीमत प्रति लीटर की दर 3 रुपये से भी कम है और इसे लेकर 10 रुपये और 15 रुपए प्रति लीटर के बीच मूल्य पर उपभोक्ताओं को बेच दिया जाता है प्राकृतिक दूध के साथ मिला कर..
रासायनिक या सिंथेटिक दूध का भौतिक स्वरुप, प्राकृतिक दूध के जैसा दिखता है, लेकिन यह पूरी तरह से है
स्वाद में भिन्न है इसका कोई भी पोषक मूल्य नहीं है, यह स्वास्थ्य के लिए खतरा और बहुत बहुत हानिकारक है
रासायनिक या सिंथेटिक दूध के उपयोग से कैंसर होने की संभावना बहुत ज्यादा है और कैसर पर प्रभाव देखा गया है
यूरिया और कास्टिक सोडा दिल, जिगर और गुर्दे के लिए बहुत हानिकारक हैं.
यूरिया से गुर्दे ख़राब होने कि सम्भावना बहुत अधिक है , कास्टिक सोडा, में जो सोडियम होता है, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए एक धीमा जहर के रूप में कार्य करता है. लेकिन सबसे ज्यादा खतरनाक होता है या गर्भवती महिलाओं के लिए....

आइये देखते हैं अगर आपको सिंथेटिक दूध मिल जाए तो आप कैसे पहचानेंगे.....


(बड़ा करने के लिए टेबल पर क्लीक करें )

Friday, October 2, 2009

दूध....दूध...और दूध...


गाँधी जयंती की शुभकामना !!!

इधर बहुत दिनों से बस एक ही राग अलापते रहे हैं, वही दिल का रोना, दिल में छेद होना, अश्क, आहट, गम, दर्द और न जाने क्या-क्या मन कुछ उकता सा गया इन बातों से भी....
अब रोज-रोज शायरी भी कहाँ हो पाती है..वैसे भी हम रोज एक कविता लिख देते हैं तो लोगों को लगता है पता नहीं ..कहीं कोई कारू का खजाना तो नहीं मिल गया है गडा हुआ कविताओं का...अरे नहीं बाबा इ सब हम ही करते हैं....विश्वास कर लीजिये...

हाँ तो आज सोचे कुछ अलग हो जावे... बस इसी बहाने पहुँच गए बचपन में...जब हमारे घर गाय बियाई थी...
सुबह-सुबह ग्वाला आता था गाय दुहने और हम होते थे उनके पीछे पीछे ...नन्हा सा बछड़ा और हमरा हाथ उसकी गर्दन पर सहलाता हुआ...ग्वाला का नाम था 'करुवा'...अब करुवा गाय दुह रहा था ..हमको मालूम था कि कुछ दिन तक उ गाय का दूघ हम लोग नहीं पी सकते हैं ..नई बियाई थी न..उसके दूध से 'खिरसा' बनेगा....
हम बस लटके रहे बछा के साथ और देखते रहे गाय दुहना कि हमरा मन कैसा-कैसा तो हो गया देख कर...दूध की जगह लहू की धार निकल गयी थी....करुवा रुक गया ..का जानी का किया फिर दुहने लगा और अब दूध ही निकला...
लेकिन उ लहू की धार हमरे मन में ऐसा बैठी की बस हमरा दूध पीना बंद..और जो उस दिन हुआ उ आज तक बंद ही है...
इ बात हम सोचते-सोचते अब बुड्ढे होने लगे हैं फिन आज सोचे बोल ही देवें....

सोचिये...गाय किसके लिए दूध देती है...अपने बच्चे के लिए लेकिन हम मनुष्य उस बछडे के मुंह से दूध छीन कर पी लेते हैं क्या यह सही है ?
क्या यह पाप नहीं है ?


भगवान् ने हम मनुष्यों को भी माँ का दूध दिया है लेकिन एक उम्र तक के लिए ही....अगर दूध पीना इतना ही ज़रूरी होता तो हर माँ सारी उम्र दूध देती और हम सब सारी उम्र दूध पीते.. लेकिन ऐसा नहीं है....इसका मतलब यह हुआ कि दूध सिर्फ एक उम्र तक ही ज़रूरी है...फिर भी हम दूध पीते हैं वो भी किसी और के हिस्से का दूध छीन कर...

अब आते हैं इस बात पर कि क्या वो दूध सही है हमारे शरीर के लिए....गौर कीजिये....यह दूध गाय या भैस या किसी भी जानवर का है ...उस दूध में उस जानवार के जीवाणु हैं और उसी प्रजाति के लिए होने चाहए लेकिन हम उसे जान-बूझ कर अपने शरीर में डाल लेते हैं क्या यह हमारे स्वस्थ्य के लिए ठीक होता होगा...?? आप बताइए आप क्या सोचते हैं ???

अब बात करते हैं...क्या दूध....शाकाहारी है ???
अगर है तो क्यूँ और कैसे ????
सोचिये और आप जवाब दीजिये न.....

तो हो गए तीन प्रश्न ...
१. क्या किसी जानवर के बच्चे के हिस्से का दूध उससे छीन कर हम मनुष्यों का पीना सही है ?
क्या Animal Protection Act इसके लिए काम करेगा...?
२. दूध पीने से क्या दूसरे जानवर के जीवाणु हमें नुक्सान पहुंचा सकते हैं ?
३. क्या दूध वास्तव में शाकाहारी है ?