Wednesday, September 30, 2009

मेरे सपने


हिम्मत के
दरवाज़े पर
टंगी
उम्मीद की
पोटली
इंतज़ार की साँकल से
बार-बार टकराती है !
यकीन को
थपथपाती है !
खवाब..
ख्यालों की
कुण्डी खोल कर
अन्दर आ गए हैं
आंखों की सूखी नदी
जाग गयी
अब तय है कि
तूफ़ान बा-दस्तूर
आएगा
मेरे सपने
या डूबेंगे
या फिर किनारे
लग जायेंगे
देखते हैं क्या
होता है
नज़र न लग जाए
इसलिए खामोशी का
एक ढीठौना
तो लगा दिया है मैंने....

Tuesday, September 29, 2009

चुपचाप..



निकले थे हम
यूँ ही
ज़रा सा बाहर
कि मिल गयी
बिखरी सी ज़िन्दगी,
रिश्तों की डोरी,
खुशियों के मंज़र,
दुश्मनों के खंज़र
दोस्तों के पत्थर,
आँखों के समंदर
यादों की कतरन
और भड़कती सी
आग
हमने समेट लिया
सब कुछ
सीने के अन्दर
चुपचाप..

Monday, September 28, 2009

यूँ हीं....


ख्याल आते रहे
सोहबत में
ज़रुरत के
ज़िन्दगी गुज़रती रही

इशारों को कैसे
जुबां दे दें हम
मोहब्बत बच जाए
दुआ निकलती रही

रेत के बुत से
खड़े रहे सामने
पत्थर की इक नदी
गुज़रती रही

रूह थी वो मेरी
लहू-लुहान सी
बदन से मैं अपने
निकलती रही



बेवजह तुम
क्यों ठिठकने लगे हो
मैं अपने ही हाथों
फिसलती रही

आईना तो वो
सीधा-सादा था 'अदा
मैं उसमें बनती
संवरती रही

Sunday, September 27, 2009

टपोरी ने लिखी प्रेम कविता ...पढ़ेंगा क्या


बोले तो बाप, खुदा न करे
कोइय्यीच ऐसा दिन भी आने का
अपुन इधरिच बैठा रहे और
तू पतली गल्ली से निकल जाने का
देख, तेरा अदा-वदा सब सॉलिड है
तेरे को अपुन दिल भी दियेला है
एक दम बिंदास 'लो' कियेला है
पण एक बात आज किलिअर करने का
बस अपुन का
'लो' हफ्ता का टाइम से मिलने का
क्या !!!

कल ओटावा में कवि सम्मलेन में मैंने मेरी ये ग़ज़ल पढ़ी थी, सुने आपको पसंद आएगी ..पक्की बात है..
श्री शरद तैलंग जी, आपने जो सुधार किया था वो सारा डाल दिया है इसमें, आपका बहुत बहुत धन्यवाद, पूरी ग़ज़ल नहीं डाल रही हूँ हाल में ही सबने पढ़ी है...


Friday, September 25, 2009

पर चलने से मैं लाचार हूँ


मुझे क्यूँ न अपने पे गुरुर हो
मैं बस एक मुश्ते गुबार हूँ

समझूँगा मैं तेरी बात क्या
पत्थर की इक मैं दीवार हूँ

निकला था बच के ख़ुशी से मैं
मैं सोगो ग़म का बज़ार हूँ

उड़ने की है किसे जुस्तजू
मैं ऊँचाइयों का शिकार हूँ

मुझे रहमतें भी गलें लगीं
औ मैं ज़ुल्मतों का भी प्यार हूँ

मैं हूँ सौदागर हर दर्द का
मैं ग़मों का भी खरीदार हूँ

इतराऊं खुद पे न क्यूँ 'अदा'
पर चलूँ कैसे मैं लाचार हूँ

Thursday, September 24, 2009


ग़मों का जायज़ा लेना हो तो देख
मेरा दामन अश्कों से तर है के नहीं

ज़ख्मों को मेरे यूँ गिन तो रहे हो
तेरी नज़र में तेरी शरर है के नहीं

अपना दीन-ओ-ईमान हम लुटा बैठें हैं
देखें तुझ पर भी कोई असर है के नहीं

जंगल की आग ने सबकुछ जला डाला
उसे भी मेरे घर की खबर है के नहीं

अंधेरों से बावस्ता हो गयी ज़िन्दगी
'अदा' इन अंधेरों की सहर है के नहीं

शरर-रौशनी

भारत बदल गया है जी..


कहा मेरे सपूत ने एक दिन
मम्मी मैं sleep over को जाऊं
मैं अवाक खड़ी पूछा उससे
sleep over क्या है बताओ
कहने लगा कि बच्चे
दूसरों के घर सोने जाते हैं
शायद सोते ही होंगे पर
सारी रात वहीँ बिताते हैं
कहने को तो parental guidance
वहाँ होता है
लेकिन ये नहीं मालूम

कौन सा parent
किस बच्चे संग सोता है
मैंने तमक कर कहा
बेटे क्यूँ ऐसा काम करोगे
कल बहन जब बड़ी होगी
तो कैसे उसको रोकोगे
कान खोल कर सुन लो बेटा
घर के बाहर कनाडा है
जिस पल तुम अन्दर आये
समझ लो ये इंडिया है
मिली एक दिन एक बहिन जी
लगती थी उदास
मैं समझी शायद इंडिया से
आई है उसकी सास
मैंने पुछा क्यूँ आज off हुई हो
क्या दिन बीत रहे हैं कड़की में
कहने लगी ये होता तो अच्छा था
मुझे परेशान किया मेरी लड़की ने
date पर जाना चाहती थी
मैंने मना किया था
you old fashioned people
कह कर 911 घुमा दिया था
पुलिस को देख वैसे ही
हाथ-पाँव पथरा गए थे
you better take care of your child
ऐसा वो धमका गए थे
अब आलम ये है कि
उसे कुछ कहते हम घबराते हैं
बदले में दो-चार डांट
उसकी रोज हम खाते हैं
घबड़ा कर मैं घर पहुंची
कहा इनसे चलो वापिस अपने देश
मुझे बिलकुल पसंद नहीं है
यह बिलायती परिवेश
बड़ी मुश्किल से सब बेच-बाच कर
पहुँचे हम हिन्दुस्तान
तसल्ली हो गयी तब जाकर
जान में आई जान
अपने culture में हम
अपने बच्चे पालेंगे
गवर्नमेंट का हस्तक्षेप न होगा
बच्चों को स्वयं सम्हालेंगे
एक week ही हुआ था बस
बेटा रोता घर आया
जूते उसने बाहर फेंके
बड़ा सा मुँह फुलाया
पूछा जब मैंने क्या बात है
बहुत-बहुत झल्लाया
कल से स्कूल नहीं जाऊँगा
गर नेम ब्रांड न दिलाया
नेम ब्रांड न पहनो तो यहाँ
भी बच्चे चिढ़ाते हैं
और सुनो माँ यहाँ भी
बच्चे dating करने जाते हैं
उस क्षण महसूस हुआ था
पाँव के नीचे से कैसे ज़मीन
निकलती है
या फिर बंद मुट्ठी से कैसे रेत
फिसलती है
हर प्रवासी अपने अनुभव से
कुछ ऐसा जुड़ जाता है
बदलती दुनिया के बदलाव
से ताल-मेल नहीं रख पता है
पलक झपकते आँख के आगे
कुछ का कुछ हो जाता है
अच्चम्भित से रह जाते हैं
जब भारत भी बदल जाता है

Wednesday, September 23, 2009

गुमशुदा


क्या तुमने देखा है ?
एक श्वेतवसना तरुणी को,
जो असंख्य वर्षों की है,
पर लगती है षोडशी
इस रूपबाला को देखे हुए
बहुत दिन हो गए,
मेरे नयन पथराने को आये
परन्तु दर्शन नहीं हो पाए

मैंने सुना है,
उस बाला को कुछ भौतिकवादियों ने
सरेआम ज़लील किया था
अनैतिकता ने भी,
अभद्रता की थी उसके साथ
बाद में भ्रष्टाचार ने उसका चीरहरण
कर लिया था

और ये भी सुना है,
कि कोई बौद्धिकवादी,
कोई विदूषक नहीं आया था
उसे बचाने
सभी सभ्यता की सड़क पर
भ्रष्टाचार का यह अत्याचार
देख रहे थे

कुछ तो इस जघन्य कृत्य पर खुश थे,
और कुछ मूक दर्शक बने खड़े रहे
बहुतों ने तो आँखें ही फेर ले उधर से
और कुछ ने तो इन्कार ही कर दिया
कि ऐसा भी कुछ हुआ था

तब से,
ना मालूम वो युवती कहाँ चली गयी
शायद उसने अपना मुँह
कहीं छुपा लिया है,
या कर ली है आत्महत्या,
कौन जाने ?

अगर तुम्हें कहीं वो मिले,
तो उसे उसके घर छोड़ आना
उसका पता है :
सभ्यता वाली गली,
वो नैतिकता नाम के मकान में रहती है
और उस युवती को हम
"मानवता" कहते हैं

Tuesday, September 22, 2009

प्राणों के दीपक जलने लगे हैं


हकीक़त के ईंटों के नीचे दबे हैं वो
सपने जो पानी से गलने लगे हैं

सजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
टंगा है मन काम चलने लगे हैं

फर्जों के साहुल से कोना बना जो
अरमां वहीं पर पिघलने लगे हैं

जुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
अश्कों के मोती फिसलने लगे हैं

ख्वाबों का गारा क्या खुशबू उड़ाए
मन-मन्दिर में वो ढलने लगे हैं

तोरण है गुम्बज है घंटी बेलपाती
प्राणों के दीपक अब जलने लगे हैं


साहुल - ये एक छोटा सा यंत्र होता है जिसे राज-मिस्त्री प्रयोग में लाते हैं , सीधी लाइन देखने के लिए.

सारी तसवीरें गूगल का सौजन्य से ....

Monday, September 21, 2009

नहीं तो हम बस खुदा घर चले


हम अब घर के रहे न घाट के रहे
धोबी का गधा बना कर चले

घातों से बातों से इतना नवाजा
इनकी भी आदत लगा कर चले

मैके जो जातीं तो जल्दी कब आतीं
कब आएँगी ये तो बता कर चले

शोपिंग को जाती हैं डालर लुटातीं
क्रेडिट उमर भर अदा कर चले

मोर्निंग उठता हूँ दिन भर खटता हूँ
मेनू हमें बस पकडा कर चले

आप ही आइये हाथ कुछ बटाइये
नहीं तो हम बस खुदा घर चले

Sunday, September 20, 2009

भरोसा हमारा उतर ही गया


क़र्ज़ और वजूद इकतार हो गए हैं
नींव हिल गयी घर बिखर ही गया

सारी उम्र दोनों अब सो न सकेंगे
बेटी का भाग अब सँवर ही गया

कई दिन से रोटी मिली ही नहीं थी
सपने में देख रोटी डर ही गया

हुआ क्या बहू जो जल कर मरी है
अख़बार का रंग निखर ही गया

काली सी गाड़ी का पहिया चढ़ा था
लाल रंग आपको अखर ही गया

आपका क्या आप चढ़ जाएँ कुर्सी
भरोसा हमारा उतर ही गया

बड़ी देर से तुझपे आँखें टिकी है


तुम्हें रस्म-ऐ-उल्फत निभानी पड़ेगी,
मुझे अपने दिल से मिटा कर तो देखो

तुम्हें लौट कर फिर से आना ही होगा
मेरे दर से इक बार जाकर तो देखो ।

ज़माने की बातें तो सुनते रहे हो,
ज़माने को अपनी सुना कर तो देखो,

चलो आईने से ज़रा मुँह को मोड़े ,
नज़र में मेरी तुम समा कर तो देखो

तेरे गीत पल-पल मैं गाती रही हूँ,
मेरा गीत अब गुनगुना कर तो देखो

मैं गुज़रा हुआ इक फ़साना नहीं हूँ
मुझे तुम हकीक़त बना कर तो देखो

तू तक़दीर की जब जगह ले चुका है
मुझे अपनी क़िस्मत बना कर तो देखो

तेरे-मेरे दिल में जो मसला हुआ है,
ये मसला कभी तुम मिटा कर तो देखो

बड़ी देर से तुझपे आँखें टिकी है,
कभी अपनी गर्दन घुमा कर तो देखो

भरोसा दिलाया है जी भर के तुमको
खड़ी है 'अदा' आज़मा कर तो देखो

Saturday, September 19, 2009

मेरी पलकों पे उनका इख्तियार होता


दिल न होता न गम न वस्ले-यार होता
न सितम होते न ही उनका प्यार होता

वो दबे पाँव घूमते हैं अब ख्यालों में
बस कोई जतन उनका दीदार होता

नींद की मुझे वो क़रारी कोई दे जाते
मेरी पलकों पे उनका इख्तियार होता

जान जाती मेरी औ रूह फना हो जाती
जुस्तजू उनकी, उनका इंतज़ार होता

कोई कुछ भी कहे नहीं है यकीं तुझको 'अदा'
तेरे जहनों को उनका एतबार होता


सारी तसवीरें गूगल का सौजन्य से ....

Friday, September 18, 2009

अब मिल के भी कहाँ हमें वो मिलते हैं


अब मिल के भी कहाँ हमें वो मिलते हैं
इक चेहरे में पशेमाँ कई लोग मिलते हैं

महफ़िल में रौनक है उनके ही दम से
खुश हैं लोग सभी और हम जलते हैं

रात भर का है मेहमाँ ये चाँद भी सुनो
अब घर से हम बहुत कम निकलते हैं

वो मर गया 'अदा' और दफन हो गया
अब किससे ये कहें के हम रोज़ मरते हैं



रिश्तों की एलास्टिक

तुम हर बार मुझे
ऐसे ही सताते हो
पहले करीब लाते हो
फिर दूर हटाते हो
जानती हूँ तुम्हें
अच्छा लगता है
मुझे रुलाना
और बाद में
मनाना
अपनी मर्ज़ी के
इल्ज़ाम लगाना
उनके वजूद को
ज़बरन पुख्ता बनाना
ये अच्छा नहीं है
कहे देती हूँ
इस तरह बार-बार
खींचोगे तो
रिश्तों की एलास्टिक
ख़राब हो जायेगी
फिर वो ज़रबंद के भी
काम नहीं आएगी

Wednesday, September 16, 2009

साँझ की बाती


जानो-दिल औ’रूह तक अब खुश्क होने को हुए
छीटें वो संदल के बन मेहराब में आ जाते हैं

किसकी बातों का बुरा कब मानेंगे अब क्या पता
बात कुछ भी है नहीं वो ताब में आ जाते हैं

साँझ की बाती सरीखे हम तो अब जलने लगे
हो नमाज़ी सा असर यूँ सबाब में आ जाते हैं

डोर बातों की पकड़ कर दूर तक चलते रहे
चुप्पियों का दौर बन सैलाब में आ जाते हैं

Tuesday, September 15, 2009

कुछ क़तरे बेतरतीब से...


माना के दरिया में कई क़तरे होते हैं
पर दरिया को क्या पड़ी कि,कितने क़तरे होते हैं
दरिया के बगैर क़तरे की,न कोई हकीक़त न वजूद
फिर भी तेवर लिए हुए,क़तरे होते हैं
मिटने का गुरुर या किस्मत कहें
ज़ज्ब-दरिया में फना,क़तरे होते हैं
क़तरे से दरिया का,रिश्ता है अजीब
नाचीज़ क़तरे होते हैं
जब दरिया से जुदा होते हैं
बेताबी दरिया की क्या बताये 'अदा'
दरिया का अंजाम भी तो क़तरे होते हैं !!

Sunday, September 13, 2009

रिटर्न ऑफ़ ए ग़ज़ल


मेरी ये नामुराद रचना अब ग़ज़ल बन गयी है, एक अजीम-ओ-शान ग़ज़लगो के हाथों....
इस मुई रचना ने कब सोचा था, कि इसे भी कोई सँवारने वाला मिल जाएगा, वो भी यहाँ से हजारों मील दूर जाने किस वादी में हजारों दिलों पर राज़ करने वाले 'श्री मेजर राजरिशी' के हाथों !!!
श्री मेजर राजरिशी को भला कौन नहीं जानता है. ये वो शख्शियत हैं जो फौलाद के हैं पर फूलों सा दिल रखते हैं...बन्दूक और कलम का ऐसा सामंजस्य बिरले ही देखने को मिलता हैं...
जहाँ गज़लकारों की दुनिया में इनकी पहचान है वहीँ सरहद की वादियाँ भी इनके नाम से गूँजतीं हैं...
मेजर साहब, बहुत-बहुत शुक्रिया आपका..
जी हां 'श्री मेजर गौतम राजरिशी' ने इसे दुरुस्त कर दिया है और मैं इसे फिर से पेश करने की हिमाक़त कर रही हूँ.....

क्यूंकि अब ये बाकायदा ग़ज़ल हैं !!!

जब कभी भी हम किसी आजाब में आ जाते हैं
बाहें फैलाए हुए वो ख़्वाब में आ जाते हैं

ढ़ूँढ़ते-फिरते हो तुम जितने सवालों के जवाब
सब के सब ही मेरे पेचोताब में आ जाते हैं

डूबने की कोशिशें मेरी करें नाकामयाब
जाल कसमों की लिये तालाब में आ जाते हैं

कुंद होने चल पड़े दिल के अंधेरों में 'अदा'
नूर की झुरमुट लिए महताब में आ जाते हैं

ये तो है जी after की तस्वीर


और ये रही before की :

जब कभी हम किसी अजाब में आ जाते हैं
बाहें फैलाए हुए वो ख़्वाब में आ जाते हैं

ढूंढ़ते फिरते हैं हम कितने सवालों का जवाब
जाने कैसे वो ख़ुदा की क़िताब में आ जाते है

कोशिशें मेरी डूबने की कर गए नाक़ामयाब
जाल कसमों के लिए तालाब में आ जाते हैं

कुंद होने चल पड़े दिल के अंधेरों में 'अदा'
नूर की झुरमुट लिए महताब में आ जाते हैं


सारी तसवीरें गूगल के सौजन्य से ....

Saturday, September 12, 2009

जाल कसमों के लिए तालाब में आ जाते हैं


जब कभी हम किसी अज़ाब में आ जाते हैं
बाहें फैलाए हुए वो ख़्वाब में आ जाते हैं

ढूंढ़ते फिरते हैं हम कितने सवालों का जवाब
जाने कैसे वो ख़ुदा की क़िताब में आ जाते है

कोशिशें मेरी डूबने की कर गए नाक़ामयाब
जाल कसमों की लिए तालाब में आ जाते हैं

कुंद होने चल पड़े दिल के अंधेरों में 'अदा'
नूर की झुरमुट लिए महताब में आ जाते हैं


सारी तसवीरें गूगल का सौजन्य से ....

Friday, September 11, 2009

मानोगे हम दुनिया हिला कर चले


तुम्हारी नज़र में नज़र हम न आयें
के खुद को नज़र से बचा कर चले

चले जायेंगे जहाँ से तो इक दिन
दिलों में इक घर बसा कर चले

मिटा दे हमारी वो यादें तेरे दिल से
खुदा से बस इतनी दुआ कर चले

सजाना न तुम मेरी तस्वीर कोई
हम अक्स अपने सारे जला कर चले

भला सा इक वक्त संग तेरे गुज़ारा
इन बातों से दिल बहला कर चले

ऐसे थे वैसे थे जैसे भी थे 'अदा'
मानोगे हम दुनिया हिला कर चले

Wednesday, September 9, 2009

मरने के हौसले भी मेरे यार कम गए हैं


क्यूँ अश्क बहते-बहते यूँ आज थम गए हैं
इतने ग़म मिले कि, हम ग़म में रम गए हैं

तुम बोल दो हमें वो जो बोलना तुम्हें है
फूलों से मार डालो हम पत्थर से जम गए हैं

रंगीनियाँ लिए हैं ग़मगीन कितने चेहरे
अफ़सोस के रंगों में वो सारे रंग गए हैं

तकतीं रहेंगी तुमको ये बे-हया सी आँखें
जीवन भी रुक रहा है कुछ लम्हें थम गए हैं

हम थे ऐसे-वैसे तुम सोचोगे कभी तो
जब सोचने लगे तो हम खुद ही नम गए हैं

जीने का हौसला तो पहले भी 'अदा' नहीं था
मरने के हौसले भी मेरे यार कम गए हैं

यहाँ ...वहाँ...क्या कहें.....




यहाँ ...वहाँ...

तब, भारत में !
वो तपती दुपहरी , बगीचे में जाना,
टहनी हिला कर, आम गिराना
दादी को फुसलाकर,अमावट बनवाना
चटाई पर हिस्से की, हद्द लगाना
बिजली गुल होते ही, कोलाहल मच जाना
तब लालटेन जला कर, अँधेरा भगाना
सुराही से पानी ले, गटागट पी जाना
गमछे से बदन का ,पसीना सुखाना
आँगन में अंगीठी पर, मूंगफली सिकवाना
सोंधे नमक की, चटकार लगाना
बिजली के आने से, खुशियाँ मानना
दौड़ कर झट से, फिर टी.वी.चलाना
सावन के मौसम में, फुहारों में दौड़ना
मटमैले पानी में, छपा-छप कूदना
गली के नुक्कड़ पर, मजमा लगाना
बिना बात के यूँ ही, गुस्सा दीखाना
किसी से कहीं भी, बस उलझ ही जाना
बेवक्त किसी की, घंटी बजाना
बिना इजाज़त, अन्दर घुस जाना
अपना जो घर था, वो अपना ही था
अपनों से अपनों का जुड़ते ही जाना

अब, कनाडा में !
ये सर्दी के मौसम में,घर में दुबकना
हर दिन मौसम की, जानकारी रखना
न बिजली के जाने की चिंता में रहना
न बिजली के आने की खुशियाँ मानना
न पसीने का आना, न पसीना सुखाना
न सुराही के पानी, का आनंद उठाना
न ख़ुशी से चिल्लाना, न शोर मचाना
गुस्सा जो आये तो, बस गुस्सा दबाना
न कुत्तों का लड़ना, न बैलों से भिड़ना
न मजमा लगाने की, हिम्मत जुटाना
न किसी का आना, न किसी का जाना
न बगैर इजाज़त, घंटी बजाना
तरतीब के देश में,तरतीब से हैं हम
मुश्किल है कुछ भी, बेतरतीब पाना
बहुत ही आसां है, मकाँ बनाना
बस कठिन है यहाँ ,एक 'घर' बसा पाना


क्या कहें.....

वफ़ा चली गई
तो जफ़ा चिपक गई

जीने की ललक बढ़ी
मौत झलक गई

सोच की स्याही
से कलम सरक गई

ज़ेब तार-तार हुई
नियत भटक गई

ज़मीर तो जगा रहा
बस आँख लपक गई

साकी की नज़र बचा
होश अटक गई

मजमों का शोर बढा
महफ़िल छिटक गयी

Monday, September 7, 2009

बंदिशें जाने कितनी हम बिरासत में ले आये हैं

बंदिशें जाने कितनी हम बिरासत में ले आये हैं
अपने दिल की बात हम कहाँ तुम्हें कह पाए हैं

हुकुमरानों की शर्तों पर कहाँ तक कोई जीता है
मेरी हसरतों ने भी अब इन्कलाबी सर उठाएं हैं

आरजूओं को हम अपनी वहीँ दबा कर आये थे
जहाँ तेरे अरमानों ने नए पैर बनवाये हैं

है मुश्किल बड़ा तेरे दिल की जमीं पर अब चलना
क्या जाने किस मोड़ पर तूने कितने रकीब छुपाये हैं

सबने तुझे बे-बहरी का खिताब दे दिया है 'अदा'
क्या हुआ बे-बहर लिखती है सुर में तो तू गाये है

Sunday, September 6, 2009

आज वो "अमर" हो गया

कल !
चमचमाती बोलेरों के काफिले में,
सैकडों बाहुबली,
कभी हुंकार,
तो कभी जयनाद करते हुए,
हथियारों के ज़खीरे के बीच,
कलफ लगी शानदार, गांधीविहीन धोती
और आदर्श रहित, खद्दर के कुर्ते में
एक मुर्दे को लाकर खड़ा कर गए

जिसके विवेक, स्वाभिमान
और अंतःकरण ने बहुत पहले,
ख़ुशी से खुदकुशी कर ली थी

बिना विवेक के वो
दीन-हीन लगता था,
बिना स्वाभिमान के
उसके हाथ जुड़ गए थे,
बिना अंतःकरण के
उसकी गर्दन झुकती ही जा रही थी,
दाँत निपोरे वो याचक बना रहा

हमने वहीँ खड़े होकर,
बिना सोचे,
उसे अभयदान दे दिया,
अगले ही पल उसके दाँत
हमारी गर्दन पर धँस गए

और देखो !
आज वो "अमर" हो गया

ऐसा हो नहीं सकता

मैं ठोकर खाके गिर जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता
गिर कर उठ नहीं पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

तुम हँसते हो परे होकर, किनारे पर खड़े होकर
मैं रोकर हँस नहीं पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

अभी जीना हुआ मुश्किल, घायल है बड़ा ये दिल
मैं टूटूँ और बिखर जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

खिजाँ का ये मंज़र है, कभी बादल घना-घन है
मैं छीटों में ही घुल जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

कश्ती की बात रहने दे , समन्दर भी डुबो दे तू
किनारे तैर न पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

गिरी है गाज हमपर अब, कभी बिजली डराती है
मैं साए से लिपट जाऊँ , ऐसा हो नहीं सकता

सभी सपने कुम्हलाये, तमन्ना रूठे बैठी है
मैं घुटनों पर ही आ जाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता

तू मेरा हैं मैं जानू, ये कायनात तेरी है
मैं तेरा हो नहीं पाऊँ, ऐसा हो नहीं सकता



अगर विडियो देखने की इच्छा है तो बस ....ज़रा सा दायी ओर देखिये 'सुर के साथ' बस यही है जी...

Saturday, September 5, 2009

उसका नज़र आता है

आईने में जब भी हम अपना चेहरा देखें हैं
तेरे चेहरे से क्यों लिपटा नज़र आता है

खुशनसीबी ढूंढ़ते फिरते हैं हम हाथों में
बदनसीबी का क्यों पहरा नज़र आता है

लगा डाले हैं कई पैबंद हमने नासूरों पर
जाने क्यूँ फिर भी कुछ उधड़ा नज़र आता है

इश्क में लुटने का ग़म कौन कमबख्त करता है
ग़म ये है तू मेरा है, पर उसका नज़र आता है

नाखुदा से भी अब हम लगाये क्या उम्मीद
वो ख़ुद ही लहरों से जब डरा नज़र आता है

भीड़ की भीड़ गुम गयी है इस शहर में आज
और ये शहर भी अब लापता नज़र आता है

अब 'अदा' पीछा करे तो कहो किसका करे
वक़्त जब ख़ुद ही यहाँ ठहरा नज़र आता है

Friday, September 4, 2009

बिंदास गुजरती रही...

जोड़कर टुकड़े कई आईने के आज तक
अपने ही अक्स से दरारें मैं भरती रही

सामने मेरे खड़ी है ताबूत सी मेरी ज़िन्दगी
शोर कर रहा है जिस्म पर रूह उतरती रही

दोस्ती है हौसले से और यारी बे-बाकपन से
रोज इनका साथ है पर मन ही मन डरती रही

बह गईं रातें कई और घुल गए कितने ही दिन
पास थे पत्थर के शरर मैं इंतज़ार करती रही

अश्क कुम्हला गए 'अदा' दीद की थी कोटर वहीँ
याद तेरी किरकिरी बन बिंदास गुजरती रही

Wednesday, September 2, 2009

खुद को खड़ा हम पाते हैं

चाल लहू की नसों में जब धीमे से पड़ जाते हैं
मन आँगन के पोर पोर में सपने ज्यादा चिल्लाते हैं

धुंधली आँखों के ऊपर जब, मोटे ऐनक चढ़ जाते हैं
तब अपने बिगड़े भविष्य के साफ़ दर्शन हो जाते हैं

हर सुबह झुर्रियों के झुरमुट,और अधिक गहराते हैं
रोज लटों में श्वेत दायरे और बड़े हो जाते हैं

कुछ देर तो बेटी बेटे जम कर शोर मचाते हैं
फिर एकापन जी भर कर,आपसे चिपट ही जाते हैं

हमसे पहले की पीढी अब विदा लेती ही जाती है
उनके पीछे अब कतार में खुद को खड़ा हम पाते हैं